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[५] इस प्रकार हम देखते हैं कि इस धर्म की आधार भूमि उतनी ही प्राचीन है जितनी वैदिक परम्परा, जिसका सबसे बड़ा प्रमाण ऋग्वेदमें उल्लिखित केशी जैसे वातारशा मुनियोंकी साधना है जिससे यह स्पष्ट है कि वे वैदिक ऋषियोंसे तो पृथक् थे, किन्तु श्रमण मुनियोंसे अभिन्न थे। इसके अतिरिक्त केशी तथा तीर्थकर ऋषभदेवका एकत्व भी हिन्दु और जैन पुराणोंसे सिद्ध होता है।
वैशाली तथा विदेहसे प्रारंभ होकर मगध, कोशल, तक्षशिला और सौराष्ट्र तक यह श्रमण धर्म फैला और इसके अंतिम तीर्थंकर महावीरने छठी सदी ई० पू० में इसे सुव्यवस्थित रूप देकर देश-व्यापी बना दिया। साथ ही उसने उत्तर और दक्षिण भारतके विभिन्न राजवंशों तथा तत्कालीन समाजको प्रभावित किया और अपने आंतरिक गुणोंके कारण समस्त देशमें आज भी अपना अस्तित्व उसी प्रकार सुरक्षित रखे हुए है। साहित्यके अतिरिक्त इस धर्मने गुफाओं, स्तूपों, मंदिरों, मूत्तियों, चित्रों एवं ललितकलाके माध्यमसे न केवल लोकका नैतिक व आध्यात्मिक स्तर उठाने का प्रयास किया है, बल्कि देशके विभिन्न भागोंको इसने अपने सौन्दर्यसे सजाया है और, इस सांस्कृतिक योगदानमें बिहारका अपना विशेष स्थान रहा है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, २४ तीर्थंकरोंमेंसे २२ तीर्थंकरोंने इसी भमिमें निर्वाण-प्राप्ति की जिनमेंसे २० तीर्थंकरोंने हजारीबाग जिलेके सम्मेदशिखर ( पारसनाथ पर्वत ), १२ वें तीर्थकर वसुपूज्यने चम्पापुरी तथा अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीरने नालान्दा जिला-स्थित पावापुरीमें निर्वाण प्राप्त किया। इनके अतिरिक्त १९ वें तीर्थकर मल्लिनाथ तथा २१ वें तीर्थकर नेमिनाथका जन्म विदेह अथवा मिथिलामें हुआ था जबकि २० वें तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ राजगिरिमें तथा २४ वें तीर्थंकर महावीर वैशालीके कुण्डग्राममें पैदा हुए थे।
सुप्रसिद्ध जैन ग्रंथ "तत्त्वार्थसूत्र" का प्रणयन स्वनामधन्य जैन सारस्वत उमास्वाति द्वारा पाटलिपुत्र में ही हआ था। जैन धर्म तथा दर्शनके क्षेत्रमें इसका महत्व इसी बातसे आंका जा सकता है कि इस पर अब तक पाँच-छ टीकाएँ लिखी जा चुकी हैं । यह ठीक ही कहा गया है कि गीता, बाइबिल, कुरानशरीफ एवं गुरुग्रन्थ साहिबका जो महत्व हिन्दुओं, ईसाइयों, मुसलमानों और सिक्खोंके लिए है, वही "तत्त्वार्थसूत्र" का जैनियोंके लिए है । साथ ही पाटलिपुत्रमें हो जैन-परम्पराके अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहुका निवास स्थान था। भारतके प्रथम ऐतिहासिक राजवंशके संस्थापक चन्द्र गुप्त जैनधर्ममें दीक्षित हुए कि नहीं, यह विवादास्पद है, किन्तु यह तो निर्विवाद है कि पाटलिपुत्रके शासक नन्दराज (लगभग चौथी सदी ई० पू०) आदि तीर्थकर ऋषभदेवके महान् उपासक थे जो कलिंग-सम्राट खारवेलके हाथीगुफा अभिलेखसे स्पष्ट है । बौद्ध मतके प्रति अधिक झुकाव होते हुए भी सम्राट अशोकने बराबरकी पहाड़ियों पर आजीविकों एवं निर्ग्रन्थ (दिगम्बर जैन) साधुओंके लिए गुफाओंका निर्माण कर उन्हें हर प्रकारका संरक्षण प्रदान किया । वास्तवमें विहारके इतिहास में यह एक गौरवोज्ज्वल, स्वणिम अध्याय है।
जैन संस्कृत एवं प्राकृत साहित्य के अनुशीलनसे पता चलता है कि किस प्रकार उसमें विगत २५०० वर्षोंके बिहारके जन-जीवनका सर्वांगीण चित्र मिलता है। "स्थानांगसूत्र के अध्ययनसे एक बहुत ही मनोरंजक बात सामने आती है कि देशके अन्य भागोंके निवासियोंकी अपेक्षा "मगध देशके निवासी अधिक चतुर एवं बुद्धिमान हुआ करते थे। वे किसी भी विषयको संकेत मात्र से समझ लेते थे जबकि कोशलके निवासी इसे देखकर ही समझ पाते थे और पांचाल देशवासी उसे आधा सुनकर तथा दक्षिण देशवासी उसे पूरापूरा समझ पाते थे। (३।१५२)।" एक ओर जहाँ जैन साहित्यमें मगध-निवासियोंकी प्रशंसा की गयी है, वहीं दूसरी ओर ब्राह्मणोंने मगध देशको पाप-भूमि बताकर वहाँ यात्रा करना भी निषिद्ध बताया है ! स्पष्ट है कि तयुगीन धर्म सम्बन्धी सैद्धान्तिक मतभेद ही इसके पीछे काम कर रहा था।
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