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अहिंसा सत्यमस्तेयशौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
एतं सामासिक धर्म चातुर्वण्येऽब्रवीन्मनुः ।। याज्ञवल्क्य स्मृतिमें यह सामान्य धर्म नौ भेदोंमें विभक्त किया गया है। इसमें पाँच पूर्वोक्त धर्मोके अतिरिक्त दान, दम, दया और शान्ति भी समाहित किये गये हैं :
अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । दानं दमो दया क्षान्तिः सर्वेषां धर्मसाधनम् ॥ ५-१२३ ॥
इस श्लोकमें आये हुये सर्वेषां पदकी व्याख्या करते हुए वहाँ टीकामें कहा है कि ये अहिंसा आदि नौ धर्म ब्राह्मणसे लेकर चण्डाल तक सब पुरुषोंके साधन है ।'
जैनधर्म किसी जाति विशेषका धर्म नहीं है। उसका पालन प्रत्येक मानव कर सकता है । श्रावकधर्म दोहाके कर्ताने श्रावक-धर्मका उपसंहार करते हुए इस सत्यको बड़े ही मार्मिक शब्दोंमें व्यक्त किया है :
एहु धम्म जो आयरइ बभणु सुदु वि कोइ ।
सो सावउ किं सावयहं अण्ण कि सिरि मणि होइ ।। ७६ ॥ धर्मके माहात्म्यकी चर्चा स्वामी समन्तभद्रने भी रत्नकरण्डश्रावकाचारमें की है। उन्होंने बताया है कि धर्मके माहात्म्यसे कुत्ता भी मरकर देव हो जाता है और पापके कारण दैव भी मरकर कुत्ता हो जाता है। धर्म के माहात्म्यसे जीवधारियोंको कोई ऐसी अनिर्वचनीय सम्पत्ति प्राप्त होती है जिसकी कल्पना करना शक्तिके बाहर है उनके अनुसार जो मनुष्य सम्यग्दर्शनसे सम्पन्न हैं, वह चाण्डालके शरीरसे उत्पन्न होकर भी देव अर्थात् ब्राह्मण या उत्कृष्ट है, ऐसा जिनदेव कहते हैं। उनकी दशा उस अंगारेके समान हैं जो भस्म से आच्छादित होकर भी भीतरी तेजसे प्रकाशमान है। हिन्दीके भक्ति कालके सर्वोच्च महाकवि गोस्वामी तुलसीदासने भी भक्ति विवेचनमें नीच-ऊँच जातिकी सर्वथा उपेक्षा की है। उनकी दृष्टि में तो मानसकी पावनता तथा रामके प्रति अगाध श्रद्धा ही सब कुछ है।
___जैन कवि आनन्दधनने भी आत्मनिरूपणके अन्तर्गत जाति-पांतिकी पूर्ण अवहेलना की है। उनका निम्न गीत देखिये:
अवधू नाम हमारा राखे, सोई परम महारस चाखै । ना हम पुरुष नहीं हम नारी, वरन न भांति हमारी ॥ जाति न पांति न साधन साधक, ना हम लघु नहिं भारी । ना हम ताते ना हम सीरे, ना हम दीर्घ न छोटा । ना हम भाई ना हम भगिनी, ना हम बाप न धोटा। ना हम मनसा न हम सबदा, ना हम तन की धरणी ।। ना हम भेख भेखधर नाहीं, ना हम करता करणी ॥ ना हम दसरन ना हम परसन, रस न गंध कछु नाहीं । आनन्दघन चेतनमय मरति, सेवनक जन बलि जाहीं।
आनन्दघन, ( सं० विश्वनाथप्रसाद मिश्र ), पृ० ४१
१. फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री, वर्ण, जाति और धर्म, पृ० ४९ ।
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