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कृष्ण त० के पश्चात राष्ट्रकट शक्तिका 'हास दुतवेगसे प्रारम्भ हो गया, जिसका निवारण करने में उसके उत्ताधिकारी खोद्रिग नित्यवर्ष (९६५-७२ ई०), कर्क द्वि० (९७२-७३ ई०) और इन्द्र चतुर्थ (९७३८२ ई०) सर्वथा असमर्थ रहे। सन ९७२ में सीयक परमारने राजधानी मान्यखेटको जी भरकर लूटा और उसके दो वर्षके भीतर ही तेलपदेव चालु क्या राष्ट्रकूटोंकी सत्ता हस्तगत करके कल्याणीके पश्चिमी चालुक्य साम्राज्यकी नींव रख दी। वीर इन्द्र चतुर्थ ७-८ वर्ष अपने राज्यके लिए भीषण संघर्ष, एवं युद्ध करता रहा। अन्ततः वह संसारसे विरक्त हो गया और ९०२ ई० में उसने सल्लेखनापूर्वक देहत्याग कर दिया । इसके एक वर्ष पूर्व ही ९८१ ई० में श्रवणवेलगोलकी विन्ध्यगिरि पर विश्वविश्रुत गोम्मटेश बाहुबलिकी महाकाय प्रतिमा प्रतिष्ठित हो चुकी थी।
इस प्रकार लगभग अढ़ाई शताब्दी व्यापी राष्ट्रकूट युगमें जैनधर्म दक्षिणापथका सर्वप्रधान धर्म था, साम्राज्यको लगभग दो तिहाई जनता, कई सम्राट. अनेक राजपुरुष, रानियाँ, राजकुमार, राजकुमारियाँ, अधीनस्थ राजे, सामन्त सरदार, सेठ-महाजन, शिल्पी-कर्मकार, सभी वर्गों एवं वर्गों में जिनधर्मकी प्रवृत्ति थी। लोकशिक्षा भी जैन गुरुओं, जैन वसिदयों एवं विद्यापीठोंके माध्यमसे संचालित थी। विभिन्न धर्मोमें पारस्परिक सद्भावना थी। अपने इस उत्कर्षकालमें जैन संस्कृतिने भारतीय संस्कृतिका सर्वतोमुखी विकास किया, जैन कालाकारोंने मनोरम कलाकृतियोंसे देशको अलंकृत किया और जैन कवियों एवं साहित्यकारोंने भारतीके भण्डारको महy ग्रन्थरत्नोंसे भरा।
राष्ट्रकूट नरेशोंकी छत्रछायामें उक्त राष्ट्रकूट युगमें लगभग एक सौ जैन ग्रन्थकारों द्वारा, जो प्रायः सब ही दिगम्बर आम्नायसे सम्बन्धित रहे, लगभग दो सौ ग्रन्थरत्नोंके रचे जानेका पता चलता है। इन रचनाओंमें लगभग ११० संस्कृत, ३५ प्राकृत, २० कन्नड़, १५ अपभ्रश और ६ तमिल भाषाकी हैं। धवल-जयधवल जैसी अतिविशालकाय आगामिक टीकाओंके अतिरिक्त, सैद्धान्तिक, तात्त्विक, आध्यात्मिक, दार्शनिक नैयायिक, तार्किक, पौराणिक, कथा साहित्य, आचारशास्त्र, भक्तिस्तोत्रादि, मन्त्रशास्त्र इत्यादि जैन धार्मिक साहित्यके द्रव्यानुयोग-करणानुयोग-चरणानुयोग-प्रथमानुयोग, चारों ही अनुयोगोंके प्रायः सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथा बहुधा आधारभूत साहित्यका सर्जन हुआ। इसके अतिरिक्त, व्याकरण, कोश, छन्द, अलंकार, गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, चिकित्साशास्त्र, प्राणिविज्ञान, राजनीति आदि ज्ञान-विज्ञान विषयक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थोंका भी प्रणयन हुआ। इस अदभुत साहित्यिक उपलब्धिका श्रेय उक्त देशकालकी अनु कूल परिस्थितियोंको ही है।
इसी यगमें अन्यत्र, राष्ट्रकूट साम्राज्यके बाहर, राजस्थान आदिमे भी आचार्य सिद्धसेन (भाष्यकार), हरिभद्रसुरि, सिद्धसेनगणी, उद्योतनसूरि, जयसिंहसूरि, शीलाचार्य, शिलांकदेव, सिद्धर्षि विजयसिंहसरि, महेश्वरसूरि, शोभक धनपाल जैसे लगभग एक दर्जन श्वेताम्बराचार्योंन भी विपुल एवं महत्त्वपूर्ण साहित्यकी संस्कृत एवं प्राकृतमें रचना की। किन्तु उनके कृतित्वमें राष्ट्रकूटोंका कोई योगदान प्रतीत नहीं होता।
विभिन्न स्रोतोंसे ज्ञात राष्ट्रकूट युगके पूर्वोक्त ग्रन्थकारों तथा उनकी ज्ञात रचनाओंकी एक सूची नीचे सारणीमें दी जा रती है । सूचीगत कई रचनायें ऐसी भी हैं जो अधुना अनुपलब्ध हैं, कुछ-एकके विषयमें अनिश्चिय भी हो सकता है । ग्रन्थकारके नामके सामने कोष्टकमें उसका निश्चित या अनुमानित समय ईस्वी सन्में दिया है, रचनाके सामने भाषा (स-संस्कृत, प्रा०-प्राकृत, अप-अपभ्रंश, क-कन्नड़,
१. भारतीय इतिहास, एक दृष्टि, पृ० ३०९-३१० ।
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