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विशेष जोर देते थे। उन्होंने कभी भी वैसी बातोंका उपदेश नहीं दिया जिन पर उन्होंने स्वयं व्यवहार नहीं किया हो। अपनी अन्तरात्माकी ज्योतिसे दूसरोंके हृदयमें ज्योति जगाना ही उनका लक्ष्य था । अभूतपूर्व सहिष्णुता, सर्वस्व त्याग, क्षमाशीलता, मानवता, संवेदनशीलता, पीड़ा और त्याग, प्रेम और दयाके मानो वह जीवित प्रतीक थे । 'कैवल्य' की प्राप्तिके पश्चात् वह एक चिरंतन सार्वभौम व्यक्तित्वके रूपमें मानवताके समक्ष आये-वह व्यक्तित्व जो विश्व मानवता पर सदाके लिए अपनी अमर छाप छोड़ जाता है।
उच्चतम जीवनका मूलभूत सिद्धान्त अहिंसा है जिसका व्यावहारिक रूप उन्होंने अपने शिष्यों एवं अनुयायियोंके समक्ष रखा। मनुष्य हो अथवा जीव-जन्तु सबके प्रति प्रेम और अहिंसाकी भावना आवश्यक
है बडी हो अथवा छोटो-मनष्यको नीचे गिराती है और उससे जीवनकी सार्थकता नष्ट हो जाती है। नैतिकता, निर्वाण अथवा मुक्ति, क्रियावाद (कर्मका सिद्धान्त) तथा स्यावाद जैनमतके कुछ ऐसे मूलभूत सिद्धान्त हैं जो सार्वभौम एवं सार्वजनीन हैं और इनके अभावमें मानवता कभी नहीं पनप सकती है। यह ठीक है कि बौद्ध मतकी भाँति जैनमत देशके बाहर लोकप्रिय नहीं हो सका, किन्तु इसके साहित्य, दर्शन, स्थापत्य कला, चित्र-कला तथा मूर्तिकला भारतकी ऐसी धरोहर हैं जो सदा-सर्वदा विश्वमानवका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती रहेंगी।
भारतीय दर्शनको जैन दार्शनिकों एवं नैयायियोंकी देन किसीसे कम नहीं। यह ठीक है कि किसी अशोक अथवा हर्ष जैसे सम्राट का संरक्षण इस धर्मको प्राप्त नहीं हो सका, फिर भी काशी, मगध, वैशाली, अंग, अवन्ति, मल्ल, शुङ्ग, शक-कुषाण तथा कुछ गुप्त शासकोंका प्रश्रय इसे अवश्य मिला जो इनकी प्रगतिमें काफी सहायक हुआ। राजकीय संरक्षणके अभावकी पूत्ति उस युगके कुछ मूर्धन्य जैन दार्शनिकों द्वारा हुई, जिसमें सिद्धसेन दिवाकर (५३३ ई० : जैन न्यायके प्रवर्तक), समन्तभद्र (६०० ई०), अलंकदेव (७५० ई०), पाटलिपुत्रके विद्यानन्द (८०० ई०), प्रभाचन्द्र (८२५ ई०), मल्लवादिन (८२७ ई०), अभयदेवसूरि (१००० ई०), देवसूरि, चन्द्रप्रभ सूरि (११०२ ई०), हेमचन्द्र सूरि (१०८८-११७२ ई०), आनन्द सूरि तथा अमरचन्द्र सूरि (११९३-११५० ई०), हरिभद्र सूरि (११६८ ई०), मल्लिसेन सूरि (१२९२ ई०) आदिके नाम विशेष रूपसे उल्लेखनीय हैं। इनमेंसे अधिकांश मगध अथवा बिहारके थे जिन्होंने अपनी अमर कृतियों से जैन साहित्य एवं दर्शनकी सभी शाखाओंको पुष्पित एवं पल्लवित किया और बौद्ध नैयायिक जैसे दिङ्नाग एवं धर्मकीर्ति तथा अक्षपाद, उद्योतकर, वाचस्पति और उदयन जैसे दुर्द्धर्ष मैथिल दार्शनिकों और मनीषियोंके तर्कोका खण्डन कर जैनमतको प्रतिपादित किया। उस समय बौद्ध, जैन तथा मैथिल दार्शनिकोंके बीच अक्सर शास्त्रार्थ एवं एक दूसरेके मतोंका खण्डन-मण्डन हुआ करता था, किन्तु यह विवाद बौद्ध एवं हिन्दू नैयायिकोंके बीच जितना उग्र हुआ करता था, उतना हिन्दू और जैन मनीषियोंके बोच नहीं। वास्तविकता तो यह है कि श्रमणमुनि (जैन) तथा वैदिक ऋषि भारतीय इतिहासके प्रारम्भसे ही साथ-साथ चिन्तनमनन करते आ रहे थे और जन साधारणमें उनका एक-सा सम्मान था, यद्यपि उनके आदर्शों एवं मार्गों में काफी अन्तर था। कभी-कभी अपने-अपने आदर्शोकी रक्षाके लिए उनके बीच भी कटु विवाद हुआ करते थे, फिर भी ये ऋषि और मुनि सामान्य जनोंकी दृष्टिमें इतने सम्मानित थे कि धीरे-धीरे इनके बीच कोई भी साम्प्रदायिक अन्तर नहीं रह पाया और कालक्रमसे इन श्रमणोंने यह भी दावा किया कि वे वास्तवमें सच्चे ब्राह्मण थे। जो भी हो, यह तो मानना पड़ेगा कि इन दार्शनिकोंका आपसी विवाद भारतीय न्याय दर्शनके लिए वरदान बन गया। १. जर्नल ऑफ दी बिहार रिसर्च सोसाइटी, १९५८, पृ० २, तथा बुद्ध जयन्ती विशेषांक, खंड २ । २. वही, १९५८, पृ० २-३ ।
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