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सर्वाधिक विस्तृत, शक्तिशाली एवं समृद्ध साम्राज्यका एकच्छत्र स्वामी था। देशमें सुख, शान्ति और सुव्यवस्था थी। उसके पूर्वज जैनधर्मके अनुयायी नहीं थे, किन्तु उसके प्रति पूर्णतः सहिष्णु और उसके अच्छे प्रश्रयदाता थे। अमोघवर्ष सुनिश्चित रूपसे जैनधर्मका अनुयायी था, स्वामी जिनसेन उसके विद्यागुरु, धर्मगुरु एवं राजगुरु थे, राज्य परिवारके कई अन्य स्त्री-पुरुष सदस्य तथा वीर वंकेयरस प्रभृति अनेक सामन्त सरदार जिनधर्म भक्त थे । साम्राज्यमें दर्जनों जैन सांस्कृतिक संस्थान एवं ज्ञानकेन्द्र भली प्रकार फल-फूल रहे थे। इसी नरेशके शासन-कालमें स्वामी विद्यानन्दने अपने अन्तिम ग्रन्थ रचे, कवि त्रिभुवन स्वयम्भने अपने पिता महाकवि स्वयम्भूके महाकाव्योंका संवर्द्धन-सम्पादन किया, कल्याणकारकके रचयिता उग्रादित्याचार्यने सम्राट्की प्रेरणा पर अपने ग्रन्थके परिशिष्टके रूपमें मांस-निषेध प्रकरण या हिताहिताध्याय रचा, महावीराचार्यने गणितसार-संग्रह आदि रचे, शाकटायन पाल्यकीर्तिने शब्दानुशासन एवं उसकी स्वोपज्ञ अमोघवृत्तिका प्रणयन किया, महाकवि असगने महावीरचरित्र आदि कई पौराणिक चरित्र रचे और स्वामी जिनसेनने गुरुकी अधूरी टीका जयधवलको पूर्ण किया, पार्वाभ्युदय जैसा अप्रतिम काव्य रचा और महापुराण का प्रारम्भ किया, जिसे उनके शिष्य गुणभद्राचार्यने आदिपुराणके अवशिष्ट भाग तथा उत्तरपुराणकी रचना करके पूर्ण किया । गुणभद्रकी अन्य कई रचधाएँ हैं वह युवराज कृष्ण द्वितीयके विद्यागुरु भी थे। स्वयं सम्राट श्रेष्ठ विद्वान, विविध भाषाविज्ञ, कवि और लेखक था। कविराजमार्ग और प्रश्नोत्तर रत्नमलिका उसकी कृतियाँ हैं। अन्य भी साहित्य प्रणयन उस युगमें हुआ तथा कान्ययोगी, देवेन्द्र मुनीश्वर, नागविन्द, देवसेन, कुमारसेन आदि अनेक प्रभावक आचार्य हए । सुप्रसिद्ध विद्वान डॉ० रापकृष्ण गोपाल भण्डारकरके शब्दोंमें "राष्ट्रकट नरेशोंमें अमोघवर्ष जैनधर्मका सर्वमहान संरक्षक था। यह बात सत्य प्रतीत होती है कि उसने स्वयं जैनधर्म धारण कर लिया था।"
अमोघवर्षके पुत्र एवं उत्तराधिकारी कृष्ण द्वितीय शुभतुंग अकालवर्ष (८७८-९१४ ई०) के गुणभद्राचार्य तो गुरु ही थे, उनके शिष्य लोकसेन, हुमच्चके मौनी सिद्धान्त भट्टारक, पेरियकुडिके अशिष्ट नेमिभट्टारक, कोप्पणतीर्थके चटगुदुभट्टारक व उनके शिष्य सर्वनन्दि, चन्दिकावाटके वीरसेन एवं कनकसेन मुनि आदि अनेक दिगम्बराचार्य साम्राज्यमें विचरते थे। कन्नड एवं संस्कृतमें साहित्यसृजन भी हुआ। कृष्ण द्वि०के पौत्र एवं उत्तराधिकारी इन्द्र तृ० (९१४--९२२ ई०) ने भी लोक भद्र आदि गुरुओंका सम्मान किया, जिनालय निर्माण कराए, वसदियों आदिको पुष्कल दान दिये। उसके उपरान्त, अमोधवर्ष द्वि० (९२२--२५ ई०), गोविन्द चतुर्थ (९२५--३६ ई०) और अमोधवर्ष तृतीय वद्दिग (९३६--९३९ ई०) क्रमशः राष्ट्रकूट सिंहासन पर बैठे, जो अपेक्षाकृत निर्बल एवं साधारण नरेश थे, किन्तु जैनधर्मके लिए राज्याश्रय पूर्ववत बना रहा।
तदनन्तर, कृष्णराज तृ० अकालवर्ष (९३९--९६७ ई०) राष्ट्रकूट वंशका अन्तिम महान सम्नाट था, जो बड़ा प्रतापी एवं उदार भी था और जिसके समयमें भी जिनधर्मने प्रभत उत्कर्ष प्राप्त किया तथा विपल जैन साहित्य रचा गया। नन्न और भरत जैसे जैन महामन्त्री, भारसिंह और राजमल्ल जैसे साम्राज्यके स्तम्भ जिनधर्मी गंगनरेश, और केशरी चालुक्य जैसे सामन्त, वीर मार्तण्ड चामुण्डराय जैसे प्रचण्ड जैन सेनानी, महाकवि पुष्पदन्त, पम्प, सोमेदवसूरि, इन्द्रनन्दि, वीरनन्दि, कनकनन्दि, अजित सेनाचार्य, नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती प्रभृति अनेक कवि, साहित्यकार एवं प्रभावक आचार्य उस युगमें दक्षिण भारतमें हए ।
द हिस्टी आफ डेकन-अमोघवर्ष व उसके सामन्त वीर वंकेय आदि की विस्तत जानकारीके लिए. देखिए ज्योतिप्रसाद जैन कृत "प्रमुख जैन ऐतिहासिक पुरुष और महिलायें", पृ० १०१-१०६ ।
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