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जिसप्रकार पाणिनिने पूर्व प्रचलित सम्पूर्ण व्याकरणोंका परिशीलन कर अपना स्वोपज्ञ व्याकरण बनाया था, उसी प्रकार काशिकाकारने अपने कालमें प्रचलित सम्पूर्ण वृत्तियोंका अनुशीलन कर काशिकावृत्ति की रचना की थी। अतः महाभाष्यके अनन्तर काशिकावृत्तिका अधिक महत्त्व है । व्याकरण-नियमोंकी पूर्तिके लिए वह व्याकरण शृंखलाकी एक कड़ी है । इसके महत्त्वको समझ कर पाल्यकीर्तिने काशिकावृत्तिके लगभग चालीस महत्त्वपूर्ण वचनोंके भी सूत्र बना दिये हैं ।
पाणिनीय व्याकरणकी अपेक्षा शाकटायनने धातूपाठमें भी वैशिष्टय रखा है। ( कृदन्त प्रकरणमें ) पाणिनीय साधित शब्दोंके अतिरिक्त शब्दोंकी सिद्धियाँ शाकटायन व्याकरणमें दृष्टिगोचर होती है ( द्रष्ट०'गोचरसंचर०' सूत्रमें 'खल' 'भग' शब्द )।
इतनी अधिक सामग्रीको शाकटायन व्याकरणमें कल ३२३६ सत्रोंमें ही सन्निविष्ट कर देनेका चमत्कारी प्रयत्न हआ है । यक्षवर्माने अपनी व्याख्यामें ठीक ही लिखा है-'यन्नेहास्ति न तत् क्वचित्' । एक दिनमें ९ सूत्रोंका स्मरण करने पर एक वर्ष में सम्पूर्ण व्याक रणका ज्ञान शक्य है ।
लक्ष्य-लक्षण मिलकर व्याकरण बनता है । पाणिनि, कात्यायन, पतञ्जलि तथा काशिकाकारके अनन्तर पाल्यकीर्तिके समयकी संस्कृत भाषामें महत्त्वपूर्ण परिवर्तन अवश्य हुए थे। बोद्धों और जैनों द्वारा रचे गये ग्रन्थोंकी संस्कृत भाषा अपना व्यक्तित्व लिये हुए थी। इसके अतिरिक्त शिष्ट समुदायमें बोली जाने वाली संस्कृतमें भी पर्याप्त परिवर्तन हुए होंगे । शाकटायनके आमूलचूल परिशीलनसे इनका पता चलता है ।
इस प्रकार हमने देखा कि शाकटायन व्याकरणने संस्कृत भाषाके अध्ययनमें बहत बड़ा सहयोग प्रदान किया है । अपने परवर्ती वैयाकरणोंको प्रेरणा प्रदान की है । हेमचन्द्रने अपने व्याकरणमें शाकटयनव्याकरण के कतिपय सूत्रोंको अविकल गृहीत कर लिया है । सूत्रानुसारी व्याकरणोंमें प्रक्रिया-पद्धतिकी नींव डालने का श्रेय शाकटायनको ही है। यद्यपि अध्यायोंमें विभक्त होनेके कारण यह व्याकरण अध्यायानुसारी ही है, तथापि अध्यायोंकी व्यवस्था विषयानुसारिणी है । समासान्त सूत्रोंको तत्पुरुषसमासके नियमोंके अनन्तर पढ़ा गया है। प्रकियाकौमुदी के रचयिता रामचन्द्र तथा वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदीके रचयिता भट्टोजिदीक्षितने अपने ग्रन्थोमें इसी प्रक्रियाका अनुसरण किया है। 'अन्तिकबाढयार्नेदसाधौं इत्यादि सत्रोंके उदाहरणोंकी परीक्षासे इसका और भी निश्चय हो जाता है। इतने उपयोगी व्याकरणका लोकमें भूयिष्ठ प्रचार प्राप्त न कर सकनेका कारण है-दार्शनिक पृष्ठभूमिका अभाव । उसके लिए भर्तृहरि जैसे दार्शनिककी अपेक्षा थी ।
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