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पाणिनीय और शाकटायनव्याकरण : तुलनात्मक विवेचन
डॉ० वागीश शास्त्री, निदेशक, अनुसन्धान संस्थान, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी लोकमें पाणिनीय व्याकरणकी प्रतिष्ठा उसको संक्षिप्त शैली तथा सर्वाङ्गपूर्णताके कारण हुई । पूर्ववर्ती अतिविस्तृत ऐन्द्र इत्यादि व्याकरणोंको अल्प मेधावी छात्र कण्ठस्थ नहीं कर पाते थे । कुछ ऐसे व्याकरण थे, जो केवल विशिष्ट प्रकरणोंके ही नियम बताते थे। अतः सर्वाङ्गपूर्णताके न होनेके कारण केवल उनके अध्ययनसे छात्र व्याकरणके सम्पूर्ण नियमोंको नहीं जान पाते थे। ऐसी स्थितिमें ईसापूर्व पाँचवों शताब्दीके लगभग पाणिनिने पूर्ववर्ती सम्पूर्ण व्याकरणोंका अनुशीलन करके संक्षिप्त, साङ्गोपाङ्ग ( वेदलोकोभयात्मक) सन्देहरहित व्याकरण बनाया और उसे ३७७९ सूत्रोंमें बाँध दिया। धातूपाठ, गणपाठ, उणादि, नामालिङ्गानुशासन, शिक्षा इत्यादि उसके खिलपाठ हैं । किन्तु सम्प्रति उपलब्ध उणादि पाणिनिका नहीं है।
पाणिनिने भूत, भविष्य, वर्तमान इत्यादि कालोंकी कोई परिभाषा नहीं बनाई । उनसे लोक परिचित था। अतः उनकी परिभाषाएँ देकर व्याकरणका कलेवर बढ़ाना पाणिनिने उचित नहीं समझा । 'लिङ्गमशिष्यं लोकाश्रयत्वात, कह कर पाणिनिने लिङ्गका अनशासन करना भी उचित नहीं समझा। अतः उनके नाम पर प्राप्त लिङ्गानुशासन विचारणीय है । इतनी सूक्ष्मेक्षिका रखने पर भी पाणिनिकी केवल अष्टाध्यायी संस्कृत व्याकरणके सम्पूर्ण नियमोंका बोध कराने में समर्थ नहीं हो सकी। तदर्थ कात्यायनको अष्टाध्यायीके सूत्रों पर वात्तिक लिखने पड़े ताकि उसमें छूटे नियमोंका ज्ञान हो सके। किन्तु जब पाणिनीय सूत्रों पर केवल कात्यायनीय वात्तिकोंके रचे जाने मात्रसे उसकी लोकोपयोगिता सिद्ध नहीं हई, तब पतञ्जलिको अपना महाभाष्य लिखना पड़ा।
पाणिनिने सूत्रोंकी संक्षिप्तताका आश्रय इसलिए लिया था कि जिज्ञासु जन अल्प समयमें संस्कृत व्याकरणका ज्ञान कर सकें। किन्तु यह 'त्रिमुनिव्याकरणम्' इतना पृथुल हो गया कि बारह वर्षों में
अध्ययन कर पाता था, जो विशाल संस्कृत वाङ्मयमें प्रवेश करनेके लिए साधनमात्र था।
चन्द्रगोमीके अनन्तर जैन सम्प्रदायका इस ओर ध्यान गया और सर्वतः प्रथम पूज्यपाद जैनेन्द्रने छठी शताब्दीमें 'त्रिमनिव्याकरण के आधारपर जैनेन्द्र व्याकरणकी रचना की। यद्यपि इसमें पाणिनीय व्याकरणसे भी प्राचीन व्याकरणोंके तत्त्व सुरक्षित हैं, तथापि सम्पूर्ण रचना पर पाणिनीय व्याकरणका प्रभाव स्पष्ट है ।
जिस उद्देश्यको लेकर जैनेन्द्र व्याकरण की रचना की गयी थी, वह सिद्ध नहीं हुआ। संस्कृत भाषाको सरल प्रक्रियासे सिखा देनेवाले व्याकरणकी प्रतीक्षा जिज्ञासू तब भी कर रहे थे। यद्यपि शर्ववर्भाने प्रथम शताब्दीमें प्रक्रियात्मक पद्धति पर आश्रित व्याकरणकी रचना कर मार्ग दिखा दिया था, तथापि 'त्रिमुनिव्याकरण' की कसौटी पर लोकने उसे खरा नहीं पाया था। फलतः वह सर्वत्र एकच्छत्र रूपमें प्रचार नहीं पा सका।
तीन सौ वर्षों के अनन्तर श्वेताम्बरीय जैन विद्वान महाश्रमण-संघाधिपति पाल्यकीर्ति शाकटायनने 'शाकटायनव्याकरण' की रचना कर पूर्ववर्ती लौकिक व्याकरणोंकी न्यूनताओंको दूर करनेका प्रयत्न किया
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