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७. दौलतरामका शरणागत भाव
जाऊँ कहाँ तज शरन तिहारे ।
चूक अनादितनी या हमरी माफ करो करुणा गुन धारे। डूबत हों भवसागरमें अब तुम बिन को महं वार निकारे। तुम सम देव अवर नहिं कोई, तातें हम यह हाथ पसारे । मौसम अधम अनेक उधारे, वरनत है श्रुत शास्त्र अपारे । दौलत को भव पार करो, अब आया है शरनागत प्यारे ।
८. दौलतरामका आराध्य के स्वरूपका ध्यान
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नेमि प्रभूकी श्याम वरन छवि नैनन छाय रही। टेक । मणिमय तीन पीठ पर अम्बुज ता पर अधर हठी || नेमि० ।। मार-मार तप पार जार विधि केवल ऋद्धि लही ।
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चार तीस अतिशय दुति मण्डित, नव दुर्गा दोष नहीं || नेमि० ॥ जाहि सुरासुर नमत सतत मस्तक में परस
मही
सुर गुरु उर अम्बुज प्रफुलावन, अद्भुत भान सही || नेमि० ॥ घर अनुराग विलोकत जाको, दुरित नसे सबही । दौलत महिमा अतुल जासकी, का पै जात कही । नेमि प्रभू की श्याम बरन छवि नैनन छाय रही ॥
भक्ति और सत्संगति
सत्संगति भक्ति के लिये अधिक प्रेरक मानी गई है। इसीलिये सन्तोंने इसकी अधिक महिमा गाई है। कविवर वीरचन्दका निम्न पद इस विषयमें उल्लेख है :
कुरंग ।
भुरंग ।। १ ।।
न गंग ।
करो रे मन, सज्जन जनकी संग टेक | नीचकी संगति नीच कहावे, धेनु न होत हंसन देख्यो बगुला कहता, भेरुण्ड न होत चन्दन को कोई नीम न कहवत, सागर होत अमृतको नहि विष उच्चारत, खरको कहे न तुरंग ॥ २ ॥ कोयलको कोई काम न कहवत, महिषी न होत मतंग नहीं सितारको कहत सारंगी, नहीं मृदंगको चंग ।। ३ ।। दिन को रैन नहीं कोई कहयत, रवि को कहे न पतंग | वीरचन्द नहिं श्वेत दूध को कहे न कारो रंग ॥ ४ ॥
कवि भूषरवासने भी भगवान्से प्रार्थना करते हुए सहधर्मी जनकी सङ्गतिके लिए अभिलाषा
प्रकट की है :
भजन संग्रह, पृ० ११६
"आगम अभ्यास होहु सेवा सर्वज्ञ तेरी, सङ्गति समीप मिलो साघरमी जनकी ।"
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