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जैनगीतिकाव्यमें भक्ति-विवेचन
प्रो० श्रीचन्द्र जैन, उज्जैन, म०प्र० भक्तिकी महिमा
सन्तप्त जीवके लिये भक्ति एक अद्भुत रसायन है जिसके सहारे वह अपनी आकूलताको सुगमतासे मिटा सकता है। यह अथाह सागरको गोपदके रूपमें परिणत करने वाली तथा स्यामल मेघों की डरावनी अनुभतिको सुखद भावनामें बदलने वाली है । असाध्य रोगोंके शमनार्थ भक्ति ही एक अलौकिक औषधि मानी गई है। विषधरको मणिमालामें, कांटोंको फूलोंमें, लोहेको स्वर्णमें एवं विषको अमृतमें बदलने वाली यह विनयरूपिणी भक्ति है जो चिरकालसे प्राणीको आकर्षित कर रही है।
__ सब ओरसे निराश अबलाको सांत्वना देने वाली भक्ति सर्वमान्य है । ग्राहके मुखमें विह्वल गजराज का संरक्षण इसो भक्ति भावनाने किया था। अंजन तस्करकी आत्मशुद्धि भक्तिसे ही हई थी। अड़तालिस बन्द ताले एक सन्तके भजनसे ही क्षणमरमें खुल गये थे । कोढ़ जैसा भयावह रोग भक्तिसे सिंचित जल सिंचन से नष्ट हो गया था, यह आश्चर्य आज भी हमें चकित कर देता है । सतीत्वके परीक्षण कालमें भक्ति भावना ने जो अद्भुत परिणाम प्रदर्शित किये हैं, वे सर्वविदित हैं । पाषाण मूर्तिका विलीन होना, शुष्क वृक्षका पल्लवित होना, सूखे सरोवरका कमलोंसे परिपूर्ण होना, भूधरका एक निमिष में धूलि बन जाना, क्रुद्ध मृगराजका विनम्र बनकर श्वान-शिशुकी भांति पैर चाटना एवं तूफानका सुरभित पवनके रूपमें पूर्ण वातावरणको सुगन्धित कर देना-ये सब भक्तिके ही चमत्कार हैं।
मुक्ति साधनाका मार्ग
भक्ति, ज्ञान और कर्म-ये तीन साधनाके बड़े मार्ग हैं । ज्ञान मानव जीवनको किसी शद्ध अद्वैत तत्त्व की ओर खींचता है, कर्म उसे व्यवहारकी ओर प्रवृत्त करता है, किन्तु भक्ति या उपासनाका मार्ग ही ऐसा है जिसमें संसार और परमार्थ-दोनोंकी एक साथ मधुर साधना करना आवश्यक है । मायुर्य ही भक्ति है। देवतत्त्वके प्रति रसपूर्ण आकर्षण जब सिद्ध होता है, तभी सहज भक्तिकी भूमिका प्राप्त होती है । यों तो बाह्य उपचार भी भक्तिके अंग कहे गये हैं और नवधा भक्ति एवं षोडशोपचार पूजाको ही भक्ति सिद्धान्तके अन्तर्गत रखा जाता है, किन्तु वास्तविक भक्ति मनकी वह दशा है जिसमें देवत्वका माधुर्य मानवी मनको प्रबल रूपसे अपनी ओर खींच लेता है । यह तो अनुभव सिद्ध स्थिति है। जब यह प्राप्त होती है, तब मनुष्यका जीवन, उसके विचार और कर्मकी उच्च भूमिकामें मनुष्य इस प्रकारके मानस परिवर्तनका अनुभव नहीं करता क्योंकि साधनाका कोई भो मार्ग अपनाया जाय, उसका अन्तिम फल देवतत्त्वकी उपलब्धि ही है। देवतत्त्वकी उपलब्धिका फल है आन्तरिक आनन्दको अनुभुति । अतएव किसी भी साधना पथको तारतम्य की दष्टिसे ऊँचा या नीचा न कहकर हमें यहो भाव अपनाना चाहिये कि रुचिभेदसे मानवको इनमेंसे किसी एक को चुन लेना होता है। तभी मन अनुकूल परिस्थिति पाकर उस मार्गमें ठहरता है । वास्तविक साधना वह है जिसमें मनका अन्तर्द्वन्द्व मिट सके और अपने भीतर ही होने वाले तनाव या संधर्षकी स्थिति बचकर मनकी सारी शक्ति एक ओर ही लग सके। जिस प्रकार बालक माताके दूधके लिये व्याकुल होता है और जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अन्नके लिये क्षधित होकर सर्वात्मना उसीकी आराधना करता है, वैसे ही अमत
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