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तत्त्वार्थविषयक टीका साहित्यमें आचार्य पूज्यपाद देवनन्दि और उनकी रचनाएँ - जैनेन्द्र व्याकरण, सर्वार्थसिद्धि, जैनाभिषेक, छन्दः शास्त्र और समाधिशतक, आचार्य अकलंकदेव और उनका तत्त्वार्थवार्तिक, आचार्य सिद्धसेनगणि और उनकी तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति, मुनि नेमिचन्द्र रचित द्रव्यसंग्रह, प्रभाचन्द्र कृ तत्त्वार्थवृत्तिटिप्पण, टीकात्रय ( प्रवचनसार, पंचास्तिकाय तथा समयसार पर टीकाएँ) और द्रव्यसंग्रहवृत्ति, आचार्य नरेन्द्रसेन और उनका सिद्धान्तसार-संग्रह, बृहत्प्रभाचन्द्रकृत लघुतत्त्वार्थसूत्र, प्रभाचन्द्ररचित अर्हतप्रवचन, माघनन्दि योगीन्द्र रचित शास्त्रसारसमुच्चय, ब्रह्मदेवकृत द्रव्यसंग्रह - टीका, भास्करनन्दि कृत तत्त्वार्थसूत्रवृत्ति, तत्त्वार्थसूत्रकी दो अप्रकाशित टोकायें, तत्त्वार्थसूत्रकी हरिभद्रीय टीका तथा श्रुतसागर सूरि और तत्त्वार्थसूत्र पर उनकी श्रुतसागरीवृत्तिका विवरण है ।
इस प्रकार तीन भागोंमें निबद्ध जैन साहित्यके इस सम्पूर्ण इतिहास में जैनधर्मकी मूल स्थापनासे लेकर संघभेद, जैनागम साहित्य — कसायपाहुड़, षट्खण्डागम, महाबन्ध, चूर्णियाँ, उनकी धवला और जयधवला तथा अन्य टीकायें, अन्य कर्मसाहित्य, भूगोल, खंगोल, द्रव्यानुयोग, तत्वार्थ साहित्य और उनकी टीकाओं —प्रटीकाओं पर विस्तारके साथ विचार किया गया है ।
इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ में अभी तक यत्र-तत्र बिखरे हुए सूत्रोंको जोड़कर दिगम्बर जैन साहित्यका जो एक क्रमबद्ध इतिहास लगभग १६०० पृष्ठोंमें प्रस्तुत किया गया है, वह इतिहास, साहित्य और शोध साहित्यसभी दृष्टियोंसे अत्यन्त महनीय है । पण्डितजीको भाषा अत्यन्त सरल एवं शैली सीधी विषयका प्रतिपादन करनेवाली है । जो भी कथन इस ग्रन्थमें निबद्ध हैं, वे सभी अत्यन्त प्रामाणिक रूपसे प्रस्तुत किये गए हैं । यत्र-तत्र समान श्वेताम्बर साहित्यकी भी तुलना की गई है । ग्रन्थके अन्तमें अकारादि क्रमसे ग्रन्थ एवं ग्रन्थकर्ताओंकी सूची भी दी गई है ।
आदरणीय कैलाशचन्द्र शास्त्रीने प्रथमवार जो दि० जैन साहित्यका व्यवस्थित इतिहास प्रस्तुत किया है, उसके लिये वे न केवल जैन साहित्य के इतिहासमें प्रत्युत भारतीय साहित्यके इतिहास में सदैव स्मरण किये जाते रहेंगे ।
जैन न्याय : एक समीक्षा
अन्यायी
सामान्यतः पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीको धार्मिक विषयोंका विद्वान् माना जाता है । उन्होंने स्याद्वाद महाविद्यालय में हमारे जैसे लोगोंको धर्म या सिद्धान्त ग्रन्थ ही पढ़ाये । इसलिये उनके द्वारा रचित जैन न्याय देखकर प्रथम दृष्टिमें आश्चर्य ही होता है । इस ग्रन्थको पढ़नेसे पता चलता है कि वे वास्तवमें न्यायतीर्थ भी हैं । धार्मिक मान्यताओंके लिए आगम या श्रद्धाका ही महत्त्व है । सम्भवतः तर्क और बुद्धि इस क्षेत्रमें उतने उपयोगी प्रमाणित नहीं होते । लेकिन आगमोंके सिद्धान्तोंको बौद्धिक धरातल पर स्पष्टतः सुविचरित करनेके लिए उत्तर भाग में न्यायशास्त्रका विकास किया गया है और उनपर पर्याप्त ऊहापोह हुआ है । यह बौद्धिक ऊहापोह निश्चित ही सिद्धान्तोंकी तुलनामें जटिल होता है और सामान्य जनकी समझमें कठिनाई से ही आता है । यहाँ दृश्य जगतके माध्यम से अदृश्य जगतकी धारणायें या तत्त्व सिद्ध किये जाते हैं । इस क्षेत्रमें अनुमान मुख्य योगदान करता है । यह मानवके अन्तर और बाह्यके सूक्ष्म निरीक्षण और परीक्षणकी प्रवृत्तिका द्योतक होता है । निर्दोष अनुमानके लिए यह प्रवृत्ति अत्यन्त सूक्ष्म और तीक्ष्ण होनी चाहिये । जैन न्यायके रचयिताके नाते सर्वप्रथम हमें लेखककी इस वृत्तिका
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