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वह ग्रहीतग्राहीके समान अग्रहीतग्राहीको भी समान रूपसे प्रमाण मानती है। हेमचन्द्र की प्रमाण-मीमांसाका विवरण इसका प्रमाण है। निष्कर्षतः उन्होंने बताया कि 'स्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्' का मत दोनों परम्पराओंमें स्वीकार्य है ।
संद्धान्तिक परिभाषाकी समीक्षाके उपरान्त अन्य दर्शनोंमें स्वीकृत प्रमाणकी परिभाषाकी भी शास्त्रीय समीक्षा की गयी है । इन्द्रियार्थ-संयोग स्वरूप संन्निकर्षको प्रमाण माननेवाले नैयायिकोंके मतकी समीक्षामें साधकतमत्वकी बात कहकर उसे शास्त्रीय अप्रमाणता दी गयी है। हाँ, सन्निकर्षको ज्ञानोत्पत्तिमें सहकारी कारण अवश्य स्वीकृत किया गया है । संन्निकर्षकी अप्रमाणिकताके विषयमें प्रभाचन्द्रके ग्रन्थोंके तर्कोको लेखकने व्यवस्थित कर रोचक बना दिया है। इसी सन्दर्भ में चक्षुकी अप्राप्यकारित्व सम्बन्धी मान्यताको शंका-समाधानके माध्यमसे निर्देशित किया गया है। इन प्रकरणोंको पढ़कर बीसवीं सदीका सामान्य शिक्षित व्यक्ति भी पदार्थके दर्शन और ज्ञानकी तत्कालीन प्रक्रियाको भलीभांति समझ सकता है। इसी प्रकार ज्ञानकी उत्पत्तिमें कारकसाकल्य, इन्द्रियवृत्ति तथा ज्ञात व्यापारको साधकतमत्वताका प्रस्तुत अध्यायमें खण्डन किया गया है । ये सब साधक है, साधकतम नहीं। इसलिए इनको प्रमाणका मूल लक्षण नहीं माना जा सकता। ये ज्ञानकी प्रमाणतामें द्वितीयक साधकके रूप में ही रहते है।
ज्ञानके प्रमाणको माननेवाले जैनोंके लिए ज्ञान शब्दसे सम्यक ज्ञान ही अभीष्ट होता है, मिथ्याज्ञान नहीं । मिथ्याज्ञानोंमें विपर्ययज्ञानको लेकर सात प्रकारके ख्यातिवाद प्रचलित हैं जिनके उत्तर में जैनोंने इसे विपरीतार्थख्यातिवादके रूपमें मान्यता दी है। विभिन्न ख्यातिवादोंके खण्डन-मण्डनको सामान्य जनको समझानेके लिए लेखकने शास्त्रीय मन्तव्योंको अत्यन्त ही सरल भाषामें प्रस्तुत कर यह प्रदर्शित किया है कि न्यायके समान जटिल विषयको भी सरल भाषाके माध्यमसे समझा जा सकता है।
ज्ञानके प्रमाण माननेपर ज्ञानको अभिलक्षणित करना आवश्यक है। प्रमाण होनेके लिए ज्ञानको सर्वप्रथम सम्यग होना चाहिए। इसके अतिरिक्त वह निराकार होता है, बौद्धोंके समान अर्थाकार नहीं । यह प्रतिनियत सामर्थ्य के कारण प्रतिनियत अर्थको जानता है। इसी प्रकार ज्ञान स्वसंवेदी होता है, मीम.सक
और नैयायिकोंके अनुसार परोक्ष या ज्ञानान्तरवेद्य नहीं। यह सांख्योंके समान जड़ भी नहीं होता, चेतन होता है । । ज्ञानमें प्रामाण्यकी उत्पत्ति परतः ही होती है । स्वतः नहीं । ज्ञानके इन अभिलक्षणोंसे सम्बन्धित तर्कोको भी सहज भाषामें प्रस्तुत किया गया है ।
तृतीय अध्यायमें ७५ सन्दर्भोके माध्यमसे प्रमाणके भेदों तथा सम्बन्धित प्रकरणोंके अतिरिक्त प्रत्यक्ष प्रमाणका शास्त्रीय विवरण दिया गया है। यद्यपि स्थानांग, अन्योगद्वार आदि ग्रन्थोंमें व्यवसाय, हेतु तथा प्रमाणको पर्यायवाची मानकर नैयायिकादि सम्मत तीन या चार प्रमाणोंका उल्लेख मिलता है, फिर भी पाँच ज्ञानोंको प्रमाण माननेकी प्रक्रियाका प्रारम्भ उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रसे ही मानना चाहिए। प्रमाणके भेदोंकी इस ऐतिहासिकताके परिप्रेक्ष्यमें लेखकके 'प्रमाणकी चर्चा दार्शनिक युगकी देन है', कथनमें कुछ संशोधन अपेक्षित है । यही नहीं उमास्वातिने अपनी स्वतंत्र बुद्धिका परिचय देते हुए पूर्वमें जैन ग्रन्थोंके वर्णित लौकिक परम्परामें परिभाषित प्रमाणोंकी आगमिक परिभाषा दी है तथा पांच ज्ञानोंको दो प्रमाणोंमें समाहित कर मति श्रुतको परोक्ष निरूपित किया। इससे दो प्रमुख समस्याएँ उठीं जिनका समाधान कुछ अंशोंमें सिद्धसेनने
और पूर्ण अंशोंमें अकलंकदेवने किया। अकलंकने स्पष्टतः प्रत्यक्षको लौकिक और पारमार्थिक भेदोंमें विभाजित कर भारतीय न्यायकी पारिभाषिक शब्दावलीमें जहाँ एकरूपता स्थापित की, वहीं स्मृति आदिको शब्द-संसर्गपूर्वक होनेपर परोक्षमें और अन्यथा लौकिक अनिन्द्रिय प्रत्यक्षमें समाहित किया । श्रुत तो परोक्ष है ही। इन्द्रियजन्य ज्ञानको उन्होंने प्रत्यक्षमें ही समाहित कर दिया। यह पद्धति ही उत्तरवर्ती जैन न्यायविदोंने
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