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धीन प्रवृत्ति होती है; किन्तु समस्त लौकिक सुखोंसे परे स्वाधीन तथा अनन्त चतुष्टययुक्त हो अक्षय, निरावास, सतत अवस्थित सच्चिदानन्द परब्रह्म की स्थिति बनी रहती है। .
आध्यात्मिक उत्थानके विभिन्न चरण
वर्तमानमें यह परम्परा दिगम्बर और श्वेताम्बर रूपसे दो मख्य सम्प्रदायोंमें प्रचलित है। दोनों ही सम्प्रदायोंके साधु-सन्त मूलगुणों तथा छह आवश्यकोंका नियमसे पालन करते हैं । दिगम्बर-परम्परामें मूलगुण अट्ठाईस माने गए हैं, किन्तु श्वेताम्बर-परम्परामें मूलगुणोंकी संख्या छह है। दोनों ही परम्पराएँ साधनाके प्रमुख चार अंगों (सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र और तप) को समान रूपसे महत्त्व देती है । इसी प्रकार दर्शनके आठ अंग, ज्ञानके पाँच अंग, चारित्रके पाँच अंग और तपकी साधनाके बारह अंग दोनोंमें समान हैं । तपके अन्तर्गत बाह्य और अन्तरंग-दोनों प्रकारके तपोंको दोनों स्वीकार करते हैं । बहिरंग तपके अन्तर्गत कायक्लेशको भी दोनों महत्त्वपूर्ण मानती हैं । दश प्रकारकी समाचारी भी दोनोंमें लगभग समान है । समाचार या समाचारीका अर्थ है-समताभाव । किन्तु दोनोंकी चर्याओंमें अन्तर है। परन्तु इतना स्पष्ट है कि श्रमण-सन्तोंके लिए प्रत्येक चर्या, समाचारी, आवश्यक कर्म तथा साधनाके मूलमें समता भाव बनाये रखना अनिवार्य है। इसी प्रकार मोह आदि कर्मके निवारणके लिए ध्यान-तप अनिवार्य माना गया है।
यह निश्चित है कि भारतकी सभी धार्मिक परम्पराओंने साधु-सन्तोंके लिए परमतत्त्वके साक्षात्कार हेतु आध्यात्मिक उत्थानकी विभिन्न भमिकाओंका प्रतिपादन किया है। बौद्धदर्शनमें छह भमियोंका वर्णन किया गया है। उनके नाम हैं-अन्धपथग्जन, कल्याणपथग्जन, श्रोतापन्न, सकृदागामी, औपपातिक या अनागामी और अर्हत् । वैदिक परम्परामें महर्षि पतंजलिने योगदर्शनमें चित्त की पाँच भूमिकाओंका निरूपण किया है । वे इस प्रकार हैं-क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्न और निरुद्ध । वहीं एकाग्रके वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनन्दानुगत और अस्मितानुगत चार भेदोंका वर्णन है। निरुद्ध के पश्चात् कैवल्य या मोक्षकी उपलब्धि हो जाती है । "योगवाशिष्ठ" में चित्त की चौदह भूमिकाएँ बताई गई है। आजीवक सम्प्रदायमें आठ पेड़ियोंके रूपमें उनका उल्लेख किया गया है, जिनमेंसे तीन अविकासको तथा पाँच विकासको अवस्थाकी द्योतक हैं । उनके नाम हैं-मन्दा, खिड्डा, पदवीमंसा, उजुगत, सेख, समण, जिन और पन्न । जैन-परम्परामें मुख्य रूपसे ज्ञानधाराका महत्त्व है-क्योंकि सत्यके साक्षात्कार हेतु उसकी सर्वतोमुखेन उपयोगिता है। जिनागमपरम्परामें ज्ञानको केन्द्रमें स्थान दिया है। अतः एक ओर ज्ञान सत्यकी मान्यतासे संयुक्त है और दूसरी
ओर सत्यकी मूल प्रवृत्तिसे सम्बद्ध है । इसे ही आगममें सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप रत्नत्रय कहा गया है । दर्शन, ज्ञान और चारित्रकी साधनामें विवेककी जागति आवश्यक है। आत्मानभतिसे लेकर स्वसंवेद्य निर्विकल्पक ज्ञानकी सतत धारा किस प्रकार केवलज्ञानकी स्थितिको उपलब्ध करा देती है-यही संक्षेपमें जैन श्रमण-सन्तोंकी उपलब्धि-कथा है। इसे ही गणित तथा तर्ककी भाषामें जिनागममें भावोंकी चौदह अवस्थाओंके आधार पर चौदह गुणस्थानोंके रूप में विशद एवं सूक्ष्म विवेचित किया है जो जैन गणितके आधार पर ही भली-भाँति समझा जा सकता है। इन सबका सारांश यही है कि चित्तके पूर्ण निरोध होते ही साधक एक ऐसी स्थितिमें पहुँच जाता है जहाँ साधन, साध्य और साधकमें कोई भेद नहीं रह जाता। इस स्थितिमें ध्यानकी सिद्धि के बल पर योगी अष्टकर्म रूप मायाका उच्छेद कर अद्वितीय परमब्रह्मको उपलब्ध हो जाता है जो स्वानुभूति रूप परमानन्द स्वरूप है। एक बार परमपदको प्राप्त करने के पश्चात् फिर यह कभी मायासे लिप्त नहीं होता और न इसे कभी अवतार ही लेना पड़ता है। अपनी शुद्धात्मपरिणतिको उपलब्ध हुआ श्रमण योगी स्वानुभूति रूप परमानन्द दशामें अनन्त काल तक निमज्जित रहता है। अतएव श्रमण-सन्तोंकी साधनाका उद्देश्य शुद्धात्म तत्त्व रूप परमानन्दकी स्थितिको उपलब्ध होना कहा जाता है।
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