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इसी प्रकार, साहू नट्टलको अल्हण साहूका पुत्र मान लिया गया जो वास्तविक तथ्यके सर्वथ विपरीत है। मूल ग्रन्थका विधिवत् अध्ययन न करने अथवा उसकी भाषाको न समझने या आनुमानिक आधारोंपर प्रायः ऐसी ही भ्रमपूर्ण बातें कह दी जाती हैं जिनसे यथार्थ तथ्योंका कम ही लड़खड़ा जाता
हचरिउकी प्रशस्तिके अनुसार अल्हण एवं नट्टल-दोनों घनिष्ट मित्र तो थे, किन्तु पिता-पुत्र नहीं । अल्हण राजगन्त्री था, जबकि नट्टल साहू ढिल्ली नगरका एक सर्वश्रेष्ठ, सार्थवाह, साहित्यरसिक, उदार, दानी एवं कुशल राजनीतिज्ञ था। वह अपने व्यापारके कारण अंग-वंग, कलिंग, गोड़, केरल, कर्नाटक, चोल, द्रविड, पांचाल, सिन्ध, खश, मालवा, लाट, जट्ट, नेपाल, टक्क, कोंकण महाराष्ट्र, भादानक, हरयाणा, मगध, गुर्जर एवं सौराष्ट्र जैसे देशोंमें प्रसिद्ध था तथा वहाँके राजदरबारोंमें उसे सम्मान प्राप्त था। कविने इसी नट्टल साहूके आश्रयमें रहकर पासणाहचरिउकी रचना की थी। इसी रचनाको आदि एवं अन्तकी प्रशस्तियों एवं पुष्पिकाओंमे साहू नट्टलके कृतित्व एवं व्यक्तित्वका अच्छा परिचय प्रस्तुत किया है। वर्ण्य विषय
प्रस्तुत 'पासणाहचरिउ' में कुल मिलाकर १२ सन्धियाँ एवं २४७ कडवक हैं। कविने इसे २५०० ग्रन्थान प्रमाण कहा है । उसके वर्ण्यविषयका वर्गीकरण निम्न प्रकार है :
सन्धि १-आद्य प्रशस्तिके बाद वैजयन्त विमानसे कनकप्रभदेवका चयकर वामा देवीके गर्भमें आना । सन्धि २-राजा हयसेनके यहाँ पार्श्वनाथका जन्म एवं बाललीलाएँ। सन्धि ३-हयसेनके दरबारमें यवन नरेन्द्रके राजदूतका आगमन एवं उसके द्वारा हयसेनके सम्मुख
यवन-नरेन्द्र की प्रशंसा । सन्धि ४-राजकुमार पार्श्वका यवन-नरेन्द्रसे युद्ध तथा मामा रविकीर्ति द्वारा उसके पराक्रमकी प्रशंसा। सन्धि ५-रविकीर्ति द्वारा पावसे अपनी पुत्रीके साथ विवाह कर लेनेका प्रस्ताव । इसी बीचमें वनमें
जाकर जलते हुये नाग-नागिनीको अन्तिम वेलामें मन्त्र प्रदान एवं वैराग्य । सन्धि ६-हयसेनका शोक सन्तप्त होना । पावकी घोर तपस्याका वर्णन । सन्धि ७-पार्श्व तपस्या एवं उनपर कमठ द्वारा किया गया घोर उपसर्ग । सन्धि ८,९-कैवल्य प्राप्ति, समवशरण-रचना एवं धर्मोपदेश । सन्धि १०-रविकीति द्वारा दीक्षाग्रहण । सन्धि ११-धर्मोपदेश ।
सिन्ध १२- पावके भवान्तर तथा हयसेन द्वारा दीक्षाग्रहण । अन्त्य प्रशस्ति । पासणाहरिउमें समकालीन राजनीतिक घटनाओंकी झलक
'पासणाहचरिउ' एक पौराणिक महाकाव्य है, अतः उसमें पौराणिक इतिवृत्त तथा दैवी चमत्कार आदि प्रसंगोंकी कमी नहीं । इसका मूल कारण यह है कि कवि विबुध श्रीधरका युग संक्रमणकालीन युग था। कामिनी एवं काञ्चनके लालची मुहम्मद गोरीके आक्रमण प्रारम्भ हो चुके थे, उसकी विनाशकारी लूटपाटने उत्तर भारतको थर्रा दिया था। हिन्दू राजाओंमें भी फूटके कारण परस्परमें बड़ी कलह मची हुई थी। ढिल्लीके तोमर राजा अनङ्गपालको अपनी सुरक्षा हेतु कई युद्ध करने पड़े थे। कविने जिस हम्मीर वीरके अनङ्गपाल द्वारा पराजित किए जानेकी चर्चा की है, सम्भवतः वह घटना कविकी आँखों देखी रही होगी। कविने कुमार पावके अभयराजके साथ तथा त्रिपृष्ठके हयग्रीवके साथ जैसे क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित युद्ध वर्णन किये हैं, वे वस्तुतः कल्पना प्रसूत नहीं, किन्तु हिन्दू-मुसलमानों अथवा हिन्दू राजाओंके पारस्परिक युद्धोके आँखों देखे १. तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा, पृ० ४११३८
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