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आते हुए क्रुद्ध काल (मृत्यु) को नहीं देखता । और जब मृत्यु पकड़ ले जाती है तो सन्तान, धन, महल कोई साथ नहीं जाता। साथ जाते हैं केवल पुण्य और पाप :
नापत्यानि न वित्तानि न सौधानि भवन्त्यहो।
मृत्युना नीयमानस्य पुण्यपापे परं पुनः ।। मत्यसे कौन बच सकता है ? रावणने बुढ़ापेको अपनी खाटके पायेमें बाँध रखा था, वह भी चला गया। हनुमान जो अपनी भुजाओं पर द्रोण पर्वत ही उखाड़ कर ले आये थे. वे भी चले गये। जिन रामने त्रिलोकीके सबसे बड़े वीर रावणको मार डाला था, वे भी चले गये। फिर औरोंकी तो बात ही क्या ?
बद्धा येन दशाननेन नितरां खट्वैकदेशे जरा, द्रोणाद्रिश्च समुद्ध तो हनुमता येन स्वदोर्लीलया, श्रीरामेण च येन राक्षसपतिस्त्रलोक्यवीरो हतः,
ते सर्वेऽपि गताः क्षयं विधिवशात् कान्येषु तद्भोः कथा । बालक भोजने भी मंजदेवके प्रति ऐसी बात कही थी। शंकराचार्य ने भी बात सीधी-सादी भाषामें कही थी
बालस्तावत् क्रीडासक्तः, तरुणस्तावत् तरुणीरक्तः,
वद्धस्तावच्चिन्ता-मग्नः पारे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः । कि बचपन खेलमें बीत लाता है, यौवन तरुणीके प्रेममें चला जाता है और बुढ़ापेमें तरह-तरहकी चिन्तायें ओ घेरती हैं। आत्मचिन्तनके लिये समय ही नहीं मिल पाता । यह तथ्य कैसी प्रभावकारी भाषामें प्रस्तुत किया है पद्मानन्द ने :
बाल्ये मोहमहान्धकार-गहने मग्नेन मूढ़ात्मना, तारुण्ये तरुणी - समाहृत-हृदा भोगैकसंगेच्छुना, वृद्धत्वेऽपि जराभिभूतकरणग्रामेण निःश क्तिना,
मानुष्यं किल दैवतः कथमपि प्राप्तं हतं हा मया । जैसे शीतलता और सुगन्धके पूर्ण होनेपर भी सर्पोके संसर्गके कारण चन्दन वृक्ष पान्थके लिए व्यर्थ होता है ऐसे ही कुटिल आचारवाले दुमहे लोगोंके संगसे जीवन निष्फल हो जाता है
श्रीखण्डपादपेनेव कृतं स्व जन्म निष्फलम् ।
जिह्मगानां द्विजिह्वानां सम्बन्धमनुरुन्धता ।। यहाँ निष्फलम्, जिह्मगानां और द्विजिह्वानां इन श्लिष्ट शब्दोंके प्रयोगने श्लोकमें चार चाँद लगा दिये हैं। किसीको सुन्दरीसे प्यार ही करना हो, तो पद्मानन्द द्वारा प्रस्तावित प्रियासे प्यार करे :
औचित्यांशुकशालिनी हृदय हे शीलांगरागोज्ज्वला श्रद्धा-ध्यानविवेक-मण्डनवतीं कारुण्यहारांकितां । सबोधांजनरञ्जिनीं परिलसच्चारित्रपत्रांकुरां
निर्वाणं यदि वांछसीह परमक्षान्तिप्रियां तदभज ॥ यदि तुम्हें निर्वाण (शान्ति या मुक्ति) चाहिये तो उस क्षान्तिरूपिणी प्रियासे प्यार करो जो औचित्य की साड़ी या चादर धारण करती हैं, शीलका अङ्गराग लगाती है, श्रद्धा, ध्यान और विवेकके आभूषण पहनती है, कारुण्यका हार धारण करती है, सद्ज्ञानका अञ्जन लगाती है और श्रेष्ठ चरित्रके पत्रांकुरोंसे
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