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होना, चाटुकारितासे प्रसन्न न होना, दुगन्धसे बाधित न होना, सुगन्ध पर मुग्ध न होना, स्त्री रूपसे आनन्दित न होना ओर मरे श्वानसे भी वृणा न करना । नडे सुन्दर ढगसे उन्होंने योगीकी पहचान स्पष्ट की है :
मित्र रज्यति नैव, नैव पिशुने वैरातु रो जायते , भोगे लुभ्यति नैव, नैव तपसि क्लेशं समालम्बते । रत्ने रज्यति नैव, नैव दृषदि प्रदूषमापद्यते,
येषां शुद्धहृदां सदैव हृदयं, ते योगिनो योगिनः ।। अर्थात् सच्चे योगी वे हैं जिनका शुद्ध हृदय मित्रको पाकर उल्लसित और पिशुनको पाकर वैरातुर नहीं होता । भोगमें लुब्ध और तपमें कलेषित नहीं होता और जो रत्नमें अनु रक्ति और पत्थरमें द्वष भाव नहीं प्रदर्शित करता।
पद्मानन्दने प्रारम्भके श्लोकोंमें जो उपर्युक्त बातें कहीं हैं, वे प्रायः बे ही हैं जिन्हें सभी भारतीय साधक कहते आ रहे थे। फिर भी, पद्मानन्दके कहनेके ढंगमें नवीनता है। उसमें उनका अपनापन झलकता है और जहाँ उन्होंने रूपकका आश्रय लिया है, वहाँ मौलिकताका भी । 'न च न च', 'नैव नैव' 'मम मम' के प्रयोगका उन्हें शोक है। उन्होंने एक अर्थको व्यक्ति के लिए भिन्न-भिन्न क्रियाओंका आश्रय लिया है और आवृत्तिसे बचनेको चेष्टा की है । यथा- दूयते, वाध्यते, विद्वष्यते, वैरातु रो जायते, क्लेशं सभालम्बते एवं प्रदुषमापद्यते और इसी प्रकार-समानन्द्यते, सम्प्रीयते, रज्यते, नन्दति, लभ्यति आदि।
प्राचीन मुनियों, साधुओं और विरागियोंने-चाहे वे किसी पन्थके अनुयायी रहे हों-समान रूपसे नारीकी निन्दा की है । भाषाके कवियोंमें कबोर तो सबसे आगे हैं । किन्तु इसका कारण नारीके प्रति हेय दृष्टि नहीं है। किसी भी मनि या कविने माता, बहिन और पत्रीके प्रति अश्रद्ध भाव नहीं व्यक्त किया। बात यह है कि साधन पथ पर अग्रसर होते हुए व्यक्तिको दो ही आन्तरिक शत्रुओंसे सर्वाधिक जूझना पड़ता है और वे हैं अर्थ और काम । अर्थ तृष्णा और ले भको अर्थात् परिग्रहको जन्म देता है। धर छोड़कर वनमें कुटी बनानेवाले वहाँ भी गहस्थकी तरह सम्पत्ति जोड़ने लग जाते हैं । इसीलिए कविने कहा था
जोगी दुखिया जंगम दुखिया तापस के दुख दूना ।
आशा तृष्णा सब घर व्यापै कोइ महल नहिं सूना ।। __ और काम तो किसीको नहीं छोड़ता । स्वयं अनंग रहकर भी वह साधकके अंग-अंगको मथित करता है चाहे जितना बड़ा विद्वान् हो और प्रयत्नशील भी हो, तो भी इन्द्रियाँ मनको खींच ही ले जाती हैं. ऐसा गीतामें कहा है । पुरुषके लिए नारी एवं नारीके लिए पुरुष परस्पर कामके उद्दीपक होते हैं । इसलिए पुरुष कवियोंने कामके आकर्षणसे बचनेके लिए नारीके आकर्षक अंगों, हावों-भावों एवं चेष्टाओंके प्रति अपने मनमें विरक्ति जाग्रत करनेकी चेष्टा की है । नारी कवि ऐसा नहीं करती क्योंकि पुरुष के प्रति नारीके आकर्षणकी प्रक्रिया भिन्न होती है। अतः वैराग्यके ग्रन्थों में नारीकी जो निन्दा प्राप्त होती है, वह आपाततः निन्दा दिखती है । वस्तुतः वह अपने दुर्बल मनको वशमें करने एवं कामके प्रति विरक्ति जाग्रत, करनेके लिए एक साधन मात्र है। वह काम-प्रवृत्ति और उसके उद्दीपकोंकी निन्दा है किन्तु आश्रयाश्रयि-भावसे नारी-निन्दा प्रतीत होती है । पद्मानन्दने भी सबसे पहले दस-पन्द्रह श्लोकोंमें यही किया है। वे कहते है
मध्ये स्वां कृशतां कुरङ्गक-दृशो भूनेत्रयोर्वक्रतां, कौटिल्वं चिकुरेषु रागमधरे मान्द्यं गति-प्रक्रमे । काठिन्यं कुचमण्डले तरलतामक्ष्णोनिरीक्ष्य स्फुट, वैराग्यं न भजन्ति मन्दमतयः कामातुरा ही नराः ।।
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