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आकर्षण भी असीम होता है । इस संसाररूपी वृक्षको ध्यानरूपी कुठारसे ही छेदा जा सकता है । संसाररूपी वृक्षकी छाया सामान्य एवं थके हुये मनुष्यको जो शान्ति देती हैं, वह यहीं अभिप्रेत नहीं हैं । वस्तुतः यह शान्ति ही इसका आकर्षण है । अदृश्य लोकमें इससे अधिक एवं चिरस्थायी शान्ति होती है । अतः उसे ही जीवनका लक्ष्य माना गया है ।
संसारको अङ्कुर और लताकी उपमा भी दी गई है । वास्तवमें, ये दोनों ही जीवनकी मधुरताके प्रतीक हैं । लेकिन ऐसा माना जाता है कि संसारमें बने रहनेके दो कारण होते हैं— कर्म और मोह । कर्म - बीजसे संसार अङ्कर उत्पन्न होता है और मोहबीजसे संसार लता उत्पन्न होती है। ऐसा भी माना जाता है कि कर्मबीज और मोहबीजके नष्ट होने पर संसाररूपी अङ्कुर और लता उत्पन्न ही न हो सकेगी । पर यदि ये उत्पन्न हो ही गये, तो इन्हें भावनारूप कुदाली या ध्यानरूपी अग्निसे नष्ट करनेका यत्न करना चाहिये । यदि जैनधर्म भावप्रधान है, तो अङ्कुरों और लताओंको नष्ट करनेका उपदेश अहिंसक दृष्टिके विपरीत जाता है । सम्भवतः यही कारण है कि इन अङ्करों और लताओंको मूलतः नष्ट करने का साहस एक लाखमेंसे लगभग पन्द्रह व्यक्ति ही जुटा पाते हैं । ये अपने उद्देश्यमें कितने सफल होते हैं, यह इसलिये नहीं कहा जा सकता कि पञ्चम और पष्ठ कालमें मुक्ति योग्य क्षमता आगम निषिद्ध है । फिर भी, यह मानना चाहिये कि संसारके इन उपमानोंसे इसकी ऐसी दुखमयता व्यक्त नहीं होती जैसी अनेक प्रवचनों और ग्रन्थोंकी व्याख्याओं में पाई जाती है । लेकिन संसारको उत्तम सुखका स्थान भी कैसे कहा जा सकता हैं ?
शरीरके उपमान
आत्मिक उत्थानकी प्रक्रियाको विकसित करनेके लिये यह आवश्यक है कि वर्तमान जीवन और उसके आधारभूत शरीरके प्रति घृणा उत्पन्न की जावे । इस दृष्टिसे शास्त्रोंमें शरीरके विवरण में अत्यन्त अरुचिकर भाषाका उपयोग किया गया है। इसे अनेक मल पदार्थोंसे भरा तथा अशुचि बताया है । इसे घट, कुटी और झोपड़ीकी उपमा देते हुए बताया है कि इसमें रुचिकर वस्तुओं की अपेक्षा घृणा योग्य वस्तुयें भरी हुई हैं । इसकी उत्पत्ति हिंसक माध्यमोंसे हुई है। इसके एक-एक अङ्गुल में ९६ रोग होते हैं और मृत्युरूपी हाथी इस पर सदैव वार करता रहता है। शरीरके माध्यम से मनुष्य महादुखमय विषय सुख में फँसा रहता है । सामान्य शरीर जीवित अवस्थामें शव के समान गर्हणीय है । यह हमारे सारे कष्टोंका मूल है । अतः इसे परिग्रह के समान छोड़ देना चाहिये । एक ओर जहाँ शरीरको घृणास्पद बताया गया है, वहीं दूसरी ओर उसे धर्म साधनका अङ्ग भी बताया गया है। वस्तुतः, शरीरकी जितनी निन्दा की गई है, उतना वह है नहीं, इसलिये सदियोंसे मुखरित होने वाली महापुरुषोंकी पवित्र वाणियाँ सामान्य जनके कान छूती हुई चली आ रही हैं और हमारा जीवन तथा संसार सुखमय बननेके बदले दुखबहुल बनता-सा दीखता है । यदि शरीरके प्रति इतनी गर्हणीयताका उपदेश न दिया गया होता और उसे व्यक्ति और समाजकी प्रगति करनेकी क्षमता के माध्यमसे वर्णित किया गया होता, तो शायद हमारा समाज अधिक उन्नत नैतिक धरातल पर होता । शरीर सम्बन्धी उपमानोंसे तो यहां निष्कर्ष निकलता है कि जिस प्रकार घट, झोपड़ी, कुटी और परिग्रह हमारे जीवनमें अनेक प्रकारसे उपकारी होते हैं, उसी प्रकार हमारा शरीर भी हमारे लिये तथा मानव जाति के लिये अनेक प्रकारके सुखमय विकासमें सहायक है । इसमें भरी अपवित्र वस्तुयें तो प्रकृति स्वयं निकालती रहती है और इसे शुद्ध जीवनदायी रुधिरसे भरती रहती है । स्वस्थ शरीरमें ही स्वस्थ विचार और प्रवृत्तियाँ सम्भव हैं । इसलिये हमें इन उपमानोंके आधार पर
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