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तीर्थकर, श्रमण, वृषभ, वर्धमान शब्दोंका प्रयोग हिन्दी और जैन विद्वानोंके लिये विशेषतया दर्शनीय, पठनीय और चिन्तनीय है :
वृषाही वृषभो विष्णुवृषपर्वा वृषोदरः । वर्धनां वर्धमानश्चविविक्तः श्रुतिसागरः । मनोजवस्तीर्थकरो वसुरेता वसुप्रदः
आश्रमः श्रमणः क्षामः सुपर्णो वायुवाहनः ॥ जिनसहस्रनाम स्तोत्रमें स्थविष्ठादिशतकंका चतुर्थ श्लोक पुनः पुनः पठनीय है। इसमें भगवान जिनेन्द्रका गुणगान करते हुये कहा गया है कि जिनेन्द्रदेव पृथ्वीसे क्षमावान हैं, सलिल-से शीतल है, वायुसे अपरिग्रही हैं, और अग्निशिखा सदृश उर्ध्वधर्मको धारण करनेवाले हैं। सुप्रसिद्ध उपमानोंसे अपने आराध्य उपमेयकी अभिव्यक्तिकी यह विशिष्ट शैली किसके हृदयको स्पर्श नहीं करेगी ?
क्षान्तिर्भाक् पृथ्वीमूर्तिः शान्तिर्भाक् सलिलात्मकः ।
वायुमूर्तिरसंगात्मा वह्णि मूर्तिरधर्मधृक् ॥ इसी प्रकार श्रीवृक्षादिशतंके आठवेसे ग्यारहवें श्लोकोंमें और महामुन्यादिशतके आरम्भिक छह श्लोकों कवि-कुल-भषण जिनसेनने 'म, वर्णके शब्दोंकी झड़ी लगाकर प्रबुद्ध पाठकोंको भी चमत्कृत कर दिया है। उदाहरणस्वरूप महामनि तीर्थकर विषयक निम्नलिखित श्लोक देखिये, जो अनुप्रास अलंकारका एक श्रेष्ठतम उदाहरण है :
महामुनिर्महामौनी महा ध्यानी महादमः ।
महाक्षमो महाशीलो महायज्ञो महामखः ।। जिनसहस्रनाम स्तोत्रमें जितने भी श्लोक हैं, वे जिनके ही विषयमें हैं, उनमें योगमूलक निवृत्ति है, भोगमूलक वह लोक प्रवृत्ति नहीं है जो विष्णुसहस्रनामके पुष्पहंस, ब्राह्मणप्रिय जैसे शब्दोंके प्रयोगमें हैं। दिग्वासादिशतंका प्रथम श्लोक जिनचर्याका एक उत्कृष्ट उदाहरण है :
दिग्वासा वातरशनो निर्ग्रन्थो निरम्बरः ।
निष्किचनो निराशंसो ज्ञानचक्षुरमोमुहः ।। दिशायें जिनके वस्त्र हैं और जिनका हवा भोजन है, जो बाहर भीतरकी ग्रन्थियों (मनोविकारों) से रहित हैं, स्वयं आत्माके वैभव सम्पन्न होनेसे ईश्वर है और वस्त्रविहीन हैं, अभिलाषाओं और आकांक्षाओंसे रहित है, ज्ञानरूपी नयनवाले हैं और अमावस्याके अन्धकार सदृश अज्ञान-मिथ्यात्व-दुराचारसे दूर है, ऐसे जिन ज्ञानाब्धि, शीलसागर, अमलज्योति तथा मोहान्धकारभेदक भी हैं । जिन सहस्रनाममें ब्रह्मा, शिव, बुद्ध, ब्रह्मयोनि, प्रभविष्णु, अच्युत, हिरण्यगर्भ, श्रीगर्भ, पद्मयोनि जैसे नाम भी जिन ( जितेन्द्रिय ) के बतलाये गये हैं।
जिनसहस्रनाममें जिनको प्रणवः, प्रणयः, प्राणः, प्राणदः, प्रणतेश्वरः" कहा गया है। इसके अनुरूप ही विष्णु सहस्रनाममें "वैकण्ठः, पुरुषः, प्राणः, प्राणदः, प्रणवः, पथः.. कहा गया है। जिनसहस्रनाम
में जहाँ “प्रधानमात्मा प्रकृतिः, परमः, परमोदयः,, कहा गया है, वहाँ विष्णुसहस्रनाम स्तोत्रमें “योगायोगविदां नेता प्रधानपुरुषेश्वरः' कहा गया है। जिनसहस्रनाममें "सदागतिः सत्कृतिः सत्ता सद्भूतिः सत्यपरायणः" कहा गया । "सदायोगः सदाभोगः सदातृप्तः सदाशिवः,, भी कहा गया है ।
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