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आगमोंकी ये कथाएँ वस्तुतः मनोविज्ञान और परामनोविज्ञानके खोजियोंके लिए एक अमूल्य खजाना सिद्ध हो सकती हैं।
यद्यपि आगमिक कथाएँ एक-सी शैली, वर्ण्य विषयकी समानता तथा कल्पना और कलात्मकता के अभाव में पाठकको प्रथम दृष्टिमें बाँध नहीं सकतीं। उनमें अतिप्राकृतिक तत्त्वोंकी भी भरमार -सी प्रतीत होती हैं । फिर भी जब-जब तथ्योंकी गहराईमें उतरकर रहस्यकी एक-एक परतको उतारनेका प्रयास होता है तो वे गहरे अर्थों और भावोंका प्रकटन करती हैं । अन्वेषणकी नयी राहें उद्घाटित होती हैं । यद्यपि इनको पढ़नेसे सामान्यतः कोई हृदयस्पर्शी मानवीय संवेदनाएँ उभरती हों, ऐसा नहीं लगता, पर इनमें जो पूर्वजन्म और पुनर्जन्म सम्बन्धी तथ्य उभरते हैं, वे निश्चित ही आजकी मनोविश्लेषणकी प्रक्रियाको पुनर्व्याख्यायित करते हैं । आगमोंकी जन्मान्तरीय कथाएँ मनोवैज्ञानिक अन्वेषणकी दृष्टिसे बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं ।
आजके वैज्ञानिक युगमें, जबकि प्रत्येक चिन्तन या तत्त्व प्रयोग और परीक्षणकी कसौटी पर चढ़कर अपनी मूल्यवत्ता सिद्ध करता है, नयी प्रतिष्ठा अर्जित करता है, वैसी स्थिति भी अतिप्राकृतिक तत्त्वको मात्र पौराणिक या काल्पनिक मानकर उपेक्षित नहीं किया जा सकता है । अति प्राकृतिक Phenomenon को टालना आजके to-date ज्ञान-विज्ञानके परिप्रेक्ष्य में अवैज्ञानिक ही प्रतीत होता है। क्योंकि आज भौतिकविज्ञान और मनोविज्ञानके क्षेत्रमें अतिप्राकृतिक घटनाएँ और अतीन्द्रिय अनुभव भी प्रयोग और अनुसंधानके विषय बन चुके हैं । अन्तश्चेतनाके मूल उसकी खोज में ये अप्राकृतिकसे प्रतीत होनेवाले तत्त्व भी अनिवार्य "डाटा " के रूपमें वैज्ञानिक स्वीकृति प्राप्त कर चुके हैं ।
जैनकथा - साहित्य विशेषतः भवान्तर कथाओंमें मनोवैज्ञानिक अन्वेषणकी भारी सम्पदा और सम्भावनाएँ सन्निहित हैं । उनकी शैली और शिल्पनकी ओर ध्यान न देकर एक बार मात्र उनके कथ्यका गहराई से अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि जैन आगमोंकी कथाएँ चैतन्य जागरणकी जन्मान्तरगामिनी यात्रामें सार्थक कड़ियोंके रूपमें ग्राह्य हैं ।
उल्लिखित समग्र दृष्टियोंसे जैन आगम - साहित्यका अनुशीलन करनेसे विदित होता है कि भारतीय संस्कृतिक संरचना और भारतीय प्राच्य विद्याओंके विकसनमें आर्हत् वाङ्मयका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । आगम साहित्यने जिस तरह उत्तरवर्ती साहित्य और संस्कृतिको समृद्ध और संपुष्ट किया है, उसकी कहानी बहुआयामी और बहुसोपानी है । विषय वैविध्यकी धाराओं - प्रधाराओंमें स्रोतस्वित आगम वाङ्मयने भारतीय साहित्यको प्राणवन्त बनाया है और अपनी मौलिक विशेषताओंसे उत्तरवर्ती समग्र साहित्यकी धारा को सुपुष्ट किया है । भगवान् महावीरके उत्तरवर्ती मनीषी आचार्योंने प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंशके माध्यम से भारतीय साहित्यकी जो अद्वितीय व्यक्तित्व - रचनाकी उसका आधारभूत तत्त्व आगम- साहित्य ही रहा है ।
वस्तुतः भारतीय संस्कृतिके सर्वाङ्गीण अध्ययनके लिए जैन आगम साहित्यकी सामग्री उपयोगी ही नहीं, अनिवार्य भी है। जैन आगमोंके अध्ययन तथा जैन परम्परा का पूर्ण परिचय प्राप्त किए बिना हिन्दी साहित्यका प्रामाणिक इतिहास भी नहीं लिखा जा सकता ।
अस्तु, शोध विद्वानोंसे यह अपेक्षा है कि जैन आगम साहित्यके बारेमें अपने पूर्व दृष्टिकोणको बदलकर नयी दृष्टि निर्मित करें। वर्तमान को समग्र ज्ञान-विज्ञानकी विधाओंके साथ उनका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत कर आगम- साहित्यका पुनर्मूल्यांकन करें ।
युगप्रधान आचार्यश्री तुलसीकी वा चनाप्रमुखतामें युवाचार्य श्री महाप्रज्ञजी द्वारा सम्पादित और जैन विश्व - भारती लाडनूँ द्वारा प्रकाशित या प्रकाश्यमान आगम साहित्य निश्चित ही इस दिशामें हमारा पथदर्शन कर सकता है ।
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