________________
चौथा गुणस्थानविर्षे कोई अपने स्वरूपका चितवन करै है, ताकै भी आश्रव बंध अधिक है, वा गुण श्रेणी निर्जरा नाहीं है । पंचम षष्ठम गुणस्थानविर्षे आहार-विहारादि क्रिया होते, पर द्रव्य चितवनत भी, आश्रव बंध थोरा हो है वा गुणश्रेणी निर्जरा हुआ करै है। तातै स्वद्रव्य परद्रव्यका चितवन तै निर्जरा बंध नाहों। रागादिघटें निर्जरा है, रागादिक भयें बंध है।' _ यही निराधव संवर-निर्जरा सम्यग्दर्शनका फल है। ग्रंथों और ग्रंथकारोंके कथन देख-सुनकर, उनपर समतापूर्वक, युक्ति, आगम और अनुमानका सहारा लेकर, उनकी विवक्षाएँ समझनेका प्रयत्न करना चाहिए । विवेकके साथ अपने भीतर समताभाव जगानका प्रयास करना चाहिए । इसी पुरुषार्थको 'मोक्षमार्ग' बताते हुये पण्डितजीने बड़े सरल शब्दोंमें उसकी संक्षिप्त व्याख्या की है।
'तातें बहुत कहा कहिये, जैसे रागादि मिटावनेका श्रद्धान होय, सो ही श्रद्धान सम्यग्दर्शन है । बहुरि जैसैं रागादि मिटावनेका जानना होय, सो ही जानना सम्यग्ज्ञान है । बहुरि जैसैं रागादि मिटै, सो ही आचरण सम्यक चारित्र है । ऐसा ही मोक्षमार्ग मानना योग्य है ।२
१. मोक्षमार्ग प्रकाशक, वही, अ-७, पृ० २९७ । २. वही, पृ० ३० ।
-१७५ -
.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org