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सम्यग्दृष्टि जीवके गुणगानमें दूसरी परम्परा, गृहस्थ ग्रन्थकारों की है । इस परम्परामें पञ्चाध्यायी प्रणेता पण्डित राजमलजी ( ई० १५४६-१६०४), आचार्यकल्प पण्डित टोडरमल जी, गुरुवर्य पण्डित गोपालदासजी वरैया, कविवर बनारसीदासजी आदि हैं । इन ग्रन्थकारोंने सम्यग्दृष्टिको वीतराग परिणति संयुक्त शुद्धोपयोगी, अबन्धक और रत्नत्रय-धारी भी किसी अपेक्षासे माना है ।
यह 'छोटे मुँह बड़ी बात' हो सकती है, परन्तु जितना ही मैं आज समाज में प्रचलित, एकांगी और विवक्षा-रहित धारणाओंको सुनने-समझने की कोशिश करता हूँ, उतना ही मुझे ग्रन्थकारोंका यह वर्गीकरण विचारणीय और महत्वपूर्ण लगता है । यद्यपि पण्डित दौलतरामजी और बाबा गणेशप्रसाद जी वर्णी जैसे विचारकोंकी संख्या भी कम नहीं है जिन्होंने आचार्य प्रणीत, आर्ष और चारों अनुयोगोंसे समर्थित परम्परा को ही अपनी लेखनी द्वारा प्रतिपादित किया, और इस प्रकार उचित अपेक्षा पूर्वक वस्तुस्वरूपका कथन करके स्याद्वादकी प्रतिष्ठा की है ।
मेरा यह मन्तव्य कदापि नहीं है कि उपरोक्त गृहस्थ ग्रन्थकारोंने शास्त्र - विरुद्ध या अवास्तविक प्ररूपणा की है, परन्तु ऐसा लगता है कि या तो उन्होंने हमारी बुद्धिपर भरोसा करके, हर जगह अपनी विवक्षा को स्पष्ट करनेकी आवश्यकता नहीं समझी या फिर कहीं कहीं हम ही उनकी विवक्षाको पकड़ने में चूक कर रहे हैं ।
उपरोक्त गृहस्थ ग्रन्थकारोंके 'पञ्चाध्यायी' और 'मोक्ष मार्ग प्रकाशक' ये दो ही प्रमुख ग्रन्थ हैं । एक दुर्भाग्य यह भी रहा है कि ये दोनों ही ग्रन्थ अधूरे एवं अपूर्ण हैं । दोनों ग्रन्थकार जिनवाणीकी पावन धारा में आकण्ठ अवगाह कर रहे थे। दोनोंने अपनी अद्भुत कथन क्षमता और अगाध ज्ञान लेकर, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र पर संकल्प पूर्वक लेखनी उठाई थी और उनका बहुत समृद्ध, सांगोपांग वर्णन करनेका प्रयास प्रारम्भ किया था, परन्तु दोनोंका कार्य ऐसी मझधारमें अधूरा छूट गया कि अकेले सम्यग्दर्शनका भी पूरा गुणगान उनकी लेखनीसे प्रसूत न पाया। फिर भी, सम्यकत्वके विषयमें दोनों ही विद्वानोंने जितनी सूक्ष्मतासे, जैसी विलक्षणता पूर्वक, विपुल सामग्री प्रस्तुत की है, इससे अनुमान किया जा सकता है कि यदि उनकी लेखनी ज्ञान और चरित्र पर भी चल पाती तो हमें रत्नत्रयकी अत्यन्त सुगम, अत्यन्त सरल और अत्यन्त सांगोपांग, तर्क-पूर्ण व्याख्या प्राप्त हो गई होती । हमारा दुर्भाग्य था कि ऐसा नहीं हो पाया ।
कई बार ऐसा लगता है कि इन गृहस्थ ग्रन्थकारोंने सम्यग्दर्शनका महत्व प्रतिपादन करते हुए, अपनी श्रेणी अवती सम्यग्दृष्टियोंके प्रति कुछ अधिक ही उदारता दिखाई है । इस समझका प्रतिफल यह हुआ है। कि आज सम्यग्दर्शनकी तथाकथित महिमाके ऐसे-ऐसे अर्थ लगाये जा रहे हैं, जिनके सामने ज्ञान और चारित्र की महिमाका सर्वथा लोप-सा होता दिखाई देता है । शुद्धात्मानुभूति और शुद्ध उपयोगकी लुभावनी, अबन्धक दशाका आश्वासन, जिन्हें गृहस्थी पालते हुये, व्यापार चलाते हुये और लड़ते-झगड़ते तथा विषय- कषायोंका आनन्द लेते हुये भी प्राप्त है, वे लोग व्रतादिक की शुभ परिणतिको साक्षात् बन्ध कराने वाली और हेय मान बैठे हैं । सैकड़ों, और शायद हजारों लोगोंने धारण किये हुए व्रत और ली हुई प्रतिज्ञायें तक, बन्ध तत्व समझकर, त्याग दी हैं । त्यागके त्यागकी यह हवा संक्रामक रोगकी तरह एकान्त शास्त्राभ्यासी, नवजिज्ञासुओंमें फैल रही है । अब साधकको जैसे ही सम्यग्दर्शन होकर आत्मा झलक मारना शुरू करती है, वैसे ही वह, जहाँ रमा है वहीं, अपनी उन्हीं प्रवृत्तियों के बीच, अपने आपको 'जिनेश्वरका लघुनन्दन' समझने लगता है । राज, रमा, वनितादिक जेरस, तेरस, बेरस लागे' वाली स्थिति की उसे आवश्यकता ही नहीं प्रतीत होती । खेदकी बात यह है कि तब उसे अपनी रागद्वेष रूप वर्तमान विकारी परिणति पर जरा भी खेद नहीं होता, उल्टे उसे अव्रती होनेकी एक महिमा सी लगती है । उसीका गौरव लगता है ।
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