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'मोक्षमार्ग वाकै होसी, यह तो नियम भया । तातै उपचार ते वाकै मोक्षमार्ग भया भी कहिये । परमार्थ तैं सम्यक् चारित्र भएँ ही मोक्षमार्ग हो है। असंयत सम्यग्दृष्टि के वीतराग भावरूप मोक्षमार्गका श्रद्धान भया, तातै वाकौं उपचार ते मोक्षमार्गो कहिये, परमार्थ ते वीतराग भावरूप परिणमें ही मोक्षमार्ग होसी । बहुरि प्रवचनसार विर्षे भी तीनोंकी एकाग्रता भएँ ही मोक्षमार्ग कहा है। तातै यह जानना तत्त्व श्रद्धान बिना तौ रागादि घटाएँ मोक्षमार्ग नाहीं, अर रागादि घटाए बिना तत्त्व-श्रद्धान-ज्ञान तें भी मोक्षमार्ग नाहीं । तीनों मिलै साक्षात् मोक्षमार्ग हो है।
इस प्रकार सम्यग्दर्शनके साथमे स्वरूपाचरण चारित्र और संयमाचरण चारित्रकी संगतिको दृष्टिमें रखनेसे विरोध या विवादका निराकरण हो जाता है । शुद्धोपयोग
उपयोगके अशुभ, शुभ और शुद्ध, ऐसे तीन भेद करते समय, आचार्योने सातवें गणस्थानसे ही शुद्धोपयोगका अस्तित्व माना है। छठवें गणस्थान तक शुभ और चौथेमे नीचे, मिथ्यात्वके सदभावमें, अशुभ उपयोगकी ही चर्चा है । आचार्य जयसेनने प्रवचनसारको तात्पर्यवत्ति में पहिले, दूसरे तथा तीसरे गुणस्थानोंमें तारतम्यसे घटता हुआ अशुभ उपयोग बताया है। चौथे, पाँचवे तथा छठवें गुणस्थानोंमें तारतम्यसे बढ़ता हुआ शभ उपयोग कहा है, और सातवेंसे लेकर बारहवें तक छह गुणस्थानोंमें तारतम्यसे बढ़ता हुआ शुद्ध उपयोग लिखा है । तेरहवें एवं चौदहवें गुणस्थानोंको शुद्धोपयोगका फल निरूपित किया है।
अमृतचन्द आचार्यने भी प्रवचनसारकी टीकामें, परद्रव्य संयोग कारणसे होनेवाले जीवके समस्त उपयोगको, अशुद्ध कोटिमें लेकर, विशुद्धि-संक्लेश रूप उपरागके वशीभूत, उसे शुभ और अशुभ नाम दिया है। उन्होंने दर्शनमोह और चारित्रमोह, इस प्रकार समस्त मोहनीय कर्मकी उदय दशामें, जीवको अशुभ उपयोगी और क्षयोपशम दशामें शुभोपयोगी कहा है। आचार्यने शुद्धोपयोगका विधान परद्रव्यानुवृत्तिके अभावमें, अशुद्ध उपयोगसे विमुक्त होकर, मात्र स्वद्र व्यके आश्रय रूप अवस्थामें किया है । गुणस्थान परिपाटीसे बिठाने पर अमृतचन्द्र चार्य और जिनसेनाचार्यकी उपरोक्त दोनों व्यवस्थायें एक रूप ही विधान प्रस्तुत करती पाई जाती है।
आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेवकी बृहद्रव्यसंग्रहकी टीकामें ब्रह्मदेवने भी इसी प्रकार प्रथम तीन गुणस्थानोंमें परम्परासे शुद्धोपयोगका साधक रूप शुभोपयोग और अनन्तर जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेदसे युक्त एकदेश शुद्धनय के आलम्बन रूप शुद्धोपयोग निरूपित किया है। इस प्रकार गुणस्थान परिपाटीमें मिथ्यादृष्टि जीवको शुभ उपयोगका और सम्यग्दृष्टिको सातवें गुणस्थानसे पूर्व शुद्धोपयोगका विधान आचार्योंने कहीं भी नहीं किया।
पं० टोडरमलजीने मिथ्यादृष्टि जीवको भी शुभ उपयोगका विधान करते हुए एक जगह लिखा है'शुभोपयोग तै स्वर्गादि होय, वा भली वासना ते वा भला निमित्त ते कर्मका स्थिति अनुभाग घटि जाय,
१. वही, अध्याय ९, पृष्ठ ४४८ । २. प्रवचनसार, अध्याय, । गाथा ९ (तात्पर्यवृत्ति टीका)। ३, प्रवचनसार, अध्याय, २ गाथा ६४-६७ (आत्मख्याति टीका)। ४. बृहद द्रव्य-संग्रह, गाथा ३४ की संस्कृत टीका ।
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