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वह अविलम्ब ही एक विवेकपूर्ण जीवन शैलीसे बँध जाता है । उसकी मानसिक स्थिति इस संसार में कुछ ऐसी हो जाती है, जैसी स्थिति वाग्दान् या सगाईके बाद कन्या की अपने पितृगृहमें हो जाती है । सगाई दिनसे बिदाके क्षणों तक वह कन्या, अपने जन्म गृहमें रहती है, हर्ष-विषाद, प्यार- प्रीति भोजन-पान, धरा-उठाईसब करती है, पर सगाईका सगुन चढ़ते ही, उसे अपने वर्तमान परिकरमें एक परायेपनका बोध होने लगता है । अब उसे अपना घर कहीं और दिखाई देता है । कल और आजकी उसकी प्रवृत्ति में स्पष्ट अंतर है । इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीवकी प्रवृत्ति भी भिन्न ही हो जाती है । संसार, शरीर और भोगों में परायेपनकी, और स्वसम्पदाओंमें अपनेपनकी धारणा, उसमें बड़े परिवर्तन ला देती है ।
करणानुयोगकी कसौटीपर परखें, तो समकित प्राप्त होते ही, इस जीवको अनादिकालसे निरन्तर बँधने वाली, कर्म प्रकृतियोंमेंसे इकतालीस प्रकृतियोंका बन्ध रुक जाता है । इसका हेतु यही है कि इन्हें बाँधने वाले परिणाम और क्रिया-कलाप उस जीवकी परिणतिमेंसे तिरोहित हो जाते हैं । इसे निकषपर परखकर यदि हम देखें तो हमें स्पष्ट पता लग जाता है कि असंयम दशाके रहते हुए भी, समकितवान जीवक प्रवृत्ति में बहुत परिष्कार हो जाता है । उसके मन, वचन, कार्यकी परिणति, पहिलेसे एकदम भिन्न हो जाती है ।
उदाहरण के लिए, नीच - गोत्र कर्मका बन्ध सम्यग्दृष्टि जीवको नहीं होता । इसका अर्थ हुआ कि परनिन्दा, आत्मप्रशंसा तथा दूसरोंके सद्गुणोंका आच्छादन और असका उद्भावन और अपने असद्का आच्छादन व सका उद्भावन उसके द्वारा नहीं होगा । विचारनेकी बात है कि इतने सूक्ष्म और संवेदनात्मक परिष्कार उसकी विचार पद्धतिका अंग बन जाते हैं, तब उसकी प्रवृत्ति में संकल्पी हिंसा, क्रूरता और दुष्ट अभिप्रायकी बात शेष रह जाये, यह कहाँ तक स भव है ? ऐसा ही आकलन अन्य कर्म - प्रकृतियोंके सम्बन्ध में करनेपर हमें सम्यग्दृष्टि जीवकी परिवर्तित परिणतिका सही अनुमान हो सकता है ।
सम्यग्दर्शनके प्रकार
स्वामित्वकी अपेक्षासे, अथवा सहचारी अन्य गुणोंके परिणमनकी अपेक्षासे, सम्यग्दृष्टि जीवोंकी अनेक श्रेणियाँ होती हैं । मोटे रूपमें इन्हें चौथेसे लेकर दशमें गुणस्थान तक सात श्रेणियोंमें बाँटा गया हैं । भगवान कुन्दकुन्द समयसार में द्रव्यानुयोगकी मुख्यतासे व्याख्या कर रहे थे, उनका श्रोता समुदाय, रत्नत्रय - धारी साधु समुदाय ही था, इसलिए वहाँ उन्होंने प्रायः उन्हीं उत्तम पात्रोंके अनुसार बातकी है । सम्यग्दृष्टि या ज्ञानीके लिए कुन्दकुन्द द्वारा प्रयुक्त महानतापूर्ण विशेषणोंके प्रभामण्डलमें, जब हम अपना प्रतिबिम्ब देखते हैं, तब अपनी वर्तमान दशाका परिष्कार करके, तदनुरूप उत्कर्षकी ओर अग्रसर होनेकी बजाय, हम अपनी वर्तमान उदयाभिभूत, विकारी परिणतिमें ही, उन सारी महानताओंका स्वामित्व अपने में देखने लगते हैं । उस प्रभामण्डलको अपने चहुँ ओर ढूँढ़ने लगते हैं, देखने लगते हैं या समझने लगते हैं । बस, यही भ्रम हमारे भीतर बहुत सी खुश-फफमीको उत्पन्न कर देता है ।
भगवान कुन्दकुन्दका उपदेश तो चक्रवर्तीका लड्डू है । जिसमें इसके पचानेकी क्षमता नहीं होगी, खाते ही उसके बौरा जानेमें कोई शंका नहीं है । कविवर बनारसीदासजीके साथ यही हुआ । वे जन्मतः श्वेताम्बर थे । उन्होंने जब बिना किसी प्रारम्भिक अध्ययन-मननके समयसार उठा लिया, जैसा उसमें लिखा है, वैसा ही एकान्त रूपसे समझ लिया, तो जो दशा उनकी हुई, सो अर्द्धकथानकमें दर्ज है । आज भी हममें से अनेकोंके साथ यही हो रहा है । अन्तर केवल इतना है कि स्वीकार कर सकें, इतनी सरलता और इसका परिमार्जन कर सकें इतना विवेक ऐसा साहस, बनारसीदासजी के पास था, हमारे पास नहीं है ।
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