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श्रुतके अवर्णवादके विषय में श्रुतसागरने लिखा है - "मांसभक्षणं, मद्यपानं, मातृस्वस्रादिमैथुनं जलगालने महापापमित्यादि" ६-१३ । इसमें मातृमैथुन और जलगालनमें महापापकी जो बात लिखी है, उसके मूलकी तलाश करना जरूरी है । बहनके साथ मैथुनकी बात संभवतः युगलिक चर्चा लेकर है और ऐसी चर्चाका निर्देश जिनसेन आदिके दिगम्बर पुराणोंमें वर्णित नहीं है । श्वेताम्बर आगमों और पुराणों में है ।
वस्त्र के विषय में भगवती आराधनाके अनुसार अपवाद मानकर भी श्रुतसागरने श्वेताम्ब रोके विषयमें यह लिखा है, “अमुमेवाधारं गृहीत्वा जैनाभासाः केचित् सचेलत्वं मुनीनां स्थापयन्ति तन्मिथ्या, साक्षान्मोक्षकारणं निर्ग्रन्थलिंगमितिवचनात् । अपवादव्याख्यानं तु उपकरणकुशीलापेक्षया कर्तव्यम्" (६-४९ ) । स्पष्ट है कि अब श्वेताम्बर जैन नहीं किन्तु जैनाभासकोटिमें गिने जाने लगे थे । यहाँ इस प्रश्न पर भी विचार करना जरूरी है कि पूज्यपादसे लेकर श्रुतसागर तक किसीने भी आगमविच्छेद की चर्चा क्यों नहीं की? मेरे विचारसे इसका कारण यह हो सकता कि इन सभीने यह चर्चा तो की ही है कि आगम अनादि निधन हैं । श्वेताम्बर भी इसे मानते ही हैं । जब अनादि निधनका समर्थन किया और तत्तत्समय में पुनः पुनः आगमोंका आविर्भाव स्वीकृत किया, तब आगमके विच्छेदको चर्चा अप्रासंगिक ही होगी । यह दिगम्बर- परंपरामें, आगम विच्छिन्न हुए, ऐसा न कहकर आगमघर नहीं रहे, ऐसी भावनाको बल दिया है । अतएव आगम विच्छेदकी चर्चा पूज्यपादादि आचार्योंने उठाई न हो, यह संभव है । नंदीचूर्ण में हम देखते हैं कि वहाँ इस विषय में दो मत हैं - एक है, दुष्कालके कारण आगम विप्रनष्ट हुए और दूसरा हैआगम के अनुयोगवर विनष्ट हुए । दिगम्बर ग्रन्थोंमें श्रुतावतारको चर्चामं आगमधरोंकी बात कही जाती है यह प्रमाण है कि उनके मत में आगमधरका विच्छेद मान्य हो, न कि आगमोंका । अतएव पूज्यपादादि आचार्य आगम विच्छेदकी चर्चा न करें, यह स्वाभाविक है ।
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