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भेदोंका कोई उल्लेख नहीं, अतएव हो सकता है कि यह विभाजन पूज्यपाद और अकलंकके बीचके कालमें हुआ हो। श्वेताम्बरोंमें भी अंगबाह्य के ये भेद प्राचीन आगमोंमें दिखाई नहीं देते । नंदी (९२-९४), अनुयोग (४) और पाक्षिक सूत्रमें ये भेद किये गये है। इससे भी फलित होता है कि अंगबाह्य के ये भेद उमास्वामि तक तो विशेषरूपसे प्रसिद्ध नहीं थे। संभव यह है कि सामायिक आदिको मिलाकर जब तक स्वतंत्र एक आवश्यक सूत्र माना नहीं गया, तब तक ये भेद भी प्रसिद्धिको प्राप्त नहीं हुए। यही कारण है कि तत्त्वार्थभाष्यमें सामायिक आदि स्वतंत्र ग्रन्थ माने गये हैं और इसी परम्पराका अनुसरण दिगम्बर-मान्य धवला आदिमें भी देखा जाता है। स्पष्ट है कि अनुयोगद्वारकी रचनाके पूर्व ही कभी ये कालिक-उत्कालिक भेद प्रसिद्ध हुए और उन्हें सर्वप्रथम दिगम्बर परम्परामें अकलंकने अपनाया है ।
अंगबाह्य में आचार्य अकलंकने 'तभेदाः उत्तराध्ययनादयोऽनेकधा' कहकर चर्चाको समाप्त किया है। स्पष्ट है कि उनके सम्मुख अंगबाह्य में उत्तराध्ययनका विशेष महत्त्व है । अंग-अंगबाह्यके विच्छेदको भी कोई चर्चा अकलंकने नहीं की। इससे यह परिणाम तो निकल ही सकता है कि उन आगमोंकी कोई वाचनाको वे विद्यमान मानते थे चाहे वह वाचना आज उपलब्ध श्वेताम्बर वाचनासे भिन्न ही क्यों न हो। सर्वथा भिन्न होनेकी सम्भावना भी कम ही है। अधिकांश समान हो, तो कोई आश्चर्य नहीं ।
पूज्यपादने केवलि आदिके अवर्णवादकी जो चर्चा की है, उससे बादकी भूमिका आचार्य अकलंकमें देखी जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि जैन आगमके भाष्यादि टीका ग्रन्थ पूज्यपादके समक्ष नहीं आये किन्तु अकलंकने देखे हैं । यही कारण है कि उन्होंने अवर्णवादकी चर्चा में कुछ नई बातें भी जोड़ी हैं । तत्त्वार्थसूत्रकी (६-१३) व्याख्यामें आचार्य अकलंक कहते हैं, "पिण्डाभ्यवहारजीविनः केवलदशा निर्हरणाः अलाबूपात्रपरिग्रहाः कालभेदवृत्तज्ञानदर्शनः केवलिन इत्यादिवचनं केवलिष्ववर्णवादः ।" सर्वार्थसिद्धिमें तो केवलाहारका निर्देश कर आदि पद दे दिया था, तब यहाँ वस्त्र, पात्र और ज्ञानदर्शनके क्रमिक उपयोगको देकर आदि वचन दिया है। स्पष्ट है कि अब वस्त्र और पात्रको लेकर जो विवाद दिगम्बर-श्वेताम्बरोंमें हुआ है, वह भी निर्देशयोग्य माना गया और निर्यक्ति और भाष्यमें ज्ञानदर्शनके क्रमिक उपयोगकी जो सिद्धसेनके विरोधमें चर्चा है, वह भी उल्लेख योग्य हो गई । अब दोनों सम्प्रदायोंका मतभेद उभर आया है-ऐसा कहा जा सकता है। इसी प्रकार श्रतावर्णवाद प्रसंगमें भी अन्य बातें निर्देश योग्य हो गईं : "मांसमत्स्यभक्षणं मधुसुरापानं वेदनादितमैथुनोपसेवारात्रिभोजनमित्येवमादि ।" स्पष्ट है कि ये आक्षेप भाष्यको लेकर ही अर्थात् श्वेताम्बरों द्वारा मूलकी जो व्याख्या की जाने लगी, उससे असंमति बढ़ती गई।
संघके अवर्णवादको पढ़कर वह अवर्णवाद जैनोंके द्वारा ही किया गया हो, ऐसा सर्वार्थसिद्धिसे फलित नहीं होता । सर्वार्थसिद्धि में लिखा है, “शूद्रत्वाशुचित्वाद्या विर्भावन,' इससे यह आक्षेप अजैनों द्वारा ही किया जा सकता है, यह स्पष्ट है। किन्तु आचार्य अकलंकने जो यह लिखा, "ऐते श्रमणाः शूद्राः अस्नानमलादिग्धांगाः अशुचयो दिगम्बरा निरपत्रपाः" उससे स्पष्ट होता है कि यह आक्षेप करनेमें श्वेताम्बर भी शामिल हैं । प्रतीत होता है कि दोनों सम्प्रदायोंकी खाई उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है। फिर भी, इतना तो स्वीकार करना ही होगा कि समग्रभावसे आगमविच्छेद या उसके अप्रामाण्यकी चर्चा अकलंकने की नहीं की। इससे इतना तो कहा जा सकता है कि मूल आगमोंको लेकर अभी विवाद खड़ा नहीं हुआ होगा।
पुलाकादिके विषयमें पूज्यपादने (९-४६) उनको श्रावक नहीं माना जा सकता, निर्ग्रन्थ ही वे कहे जायेगें, यह स्पष्ट किया था और कहा था, "गुणभेदादन्योन्यविशेषेऽपि नैगमादिनयव्यापारात सर्वेपि हि भवन्ति", किन्तु आचार्य अकलंकने इस चर्चा को और स्पष्ट किया कि ये गुणहीन हैं, अतएव निश्चयनयसे
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