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दृष्टि में आ सकता है कि जो जो क्रिया-व्यापार होता है, वह स्वयं चेष्टारूप ही होता है न कि चेष्टानुरूप । क्योंकि क्रिया-व्यापारसे भिन्न चेष्टा कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं होती। अतः दृष्टान्त और दान्ति दोनों जगह पर
"चेष्टारूपमात्मपरिणामात्मकं कर्म करोति ।"
ऐसा ही पाठ निर्दोष प्रतीत होता है। यहाँ रूपमात्मपरिणामात्मक कर्मकरोति' यह पाठ ठीक नहीं मालूम होता। आ० अमृतचन्द्रकी रचनाका अध्ययन और प्रकरणका मनन करनेके अनन्तर सहज ही यह ख्यालमें आवेगा। चेष्टा कोई अलग-पृथक हो और क्रिया-व्यापार रूप कर्म कोई स्वतंत्र हो, ऐसा नहीं है । अतः 'चेष्टाके अनुरूप इस अर्थमें शब्द प्रयोग कोई अर्थ नहीं रखता । इस प्रकार कर्म (क्रियाव्यापार रूप) का खुलासा करते समय 'चेष्टानुरूपमात्मपरिणामात्मकं कर्मफलं भुक्ते'-ऐसा पाठ होना चाहिये। क्योंकि सुख-दुख-रूप जो जो कर्मफल होता है, वह पूर्व में किये गये भले-बुरे (चेष्टारूप) कर्मके अनुरूप होता है। फल कोई चेष्टारूप नहीं होता। ऐसी मेरी धारणा है। यदि माना भी जावेगा, तो कर्मके स्वरूपमें और कर्मफलके स्वरूपमें अन्तर नहीं रहेगा। अतः कर्मको सुनिश्चित रूपसे चेष्टीरूपं और कर्मफलका स्वरूप स्पष्ट करते समय चेष्टानुरूपं ऐसा प्रयोग दृष्टान्त और दान्ति -दोनों जगहपर करना योग्य होता। और ऐसा पाठ बम्बई-दिल्ली तथा मेरठकी (सार्थ) नयी प्रतिमें मुद्रित भी है।
तालिकाको सूक्ष्मतासे देखनेसे यह सहज स्पष्ट हो जावेगा कि मुद्रित प्रतियोंमें एकरूपता नहीं है । मैं आशा करता हूँ कि विज्ञ अध्यवसायी पण्डितगण इस विषयमें अपना अभिप्राय तथा मनन प्रगट करनेका अनुग्रह करेंगे और प्रकाशक सावधानी पूर्वक आगामी आवृत्तियोंमें सुधार अवश्य करेंगे । जिससे अर्थग्रहणमें निर्दोषता आवेगी। रसहानि तथा अर्थहानि भी नहीं होगी। क्या ही अच्छा होगा यदि आत्मख्याति के तालबद्ध-लयबद्ध अद्भुतगद्य अंशका भी प्राचीन शुद्ध प्रतियोंके आधारसे शद्ध संस्करण हो ।
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