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मुनिके होता है जो आत्मस्वभाव में स्थित है । जो ऐसा नहीं मानता है, वह अज्ञानी है, उसे धर्मध्यानके स्वरूपका ज्ञान नहीं है । जो व्यवहारको देखता है, वह अपने आपको नहीं लख सकता है । इसलिये योगी सभी प्रकारके व्यवहारको छोड़ कर परमात्माका ध्यान करता है । जो योगी ध्यानी मुनि व्यवहार में सोता है, वह आत्मस्वरूप-चर्यामें जागता है । किन्तु जो व्यवहारमें जागता है, वह आत्मचर्या में सोता रहता है । स्पष्ट है कि साधुके लौकिक व्यवहार नहीं है और यदि है, तो वह साधु नहीं है । धर्मका व्यवहार संघ में रहना, महाव्रतादिकका पालन करनेमें भी वह उस समय तत्पर नहीं होता । अतः सब प्रवृत्तियोंकी निवृत्ति करके आत्मध्यान करता है । अपने आत्मस्वरूपमें लीन हो कर वह देखता -- जानता है कि परमज्योति स्वरूप सच्चिदानन्दका जो अनुभव है, वही मैं हूँ, अन्य सबसे भिन्न हूँ । आचार्य कुन्दकुन्दका कथन है- जो मोहदलका क्षय करके विषयसे विरक्त हो कर मनका निरोध कर स्वभाव में समवस्थित है, वह आत्माका ध्यान करनेवाला है । जो आत्माश्रयी प्रवृत्तिका आश्रय ग्रहण करता है, उसके ही परद्रव्य-प्रवृत्तिका अभाव होने से विषयोंकी विरक्तता होती है । जैसे समुद्रमें एकाकी संचरणशील जहाज पर बैठे हुए पक्षीके लिए उस जहाज के अतिरिक्त अन्य कोई आश्रयभूत स्थान नहीं है, उसी प्रकार ज्ञान-ध्यानसे विषय विरक्त शुद्ध चित्तके लिए आत्माके सिवाय किसी द्रव्यका आधार नहीं रहता । आत्माके निर्विकल्प ध्यानसे ही मोह-ग्रन्थिका भेदन होता है । मोह—गाँठके टूटने पर फिर क्या होता है ? इसे ही समझाते हुए आचार्य कहते हैं - जो मोहग्रन्थिको नष्ट कर, राग-द्वेषका क्षय कर सुख-दुःखमें समान होता हुआ श्रामण्य या साधुत्वमें परिणमन करता है, वही अक्षय सुखको प्राप्त करता है ।
जिनागममें श्रमण या सन्त दो प्रकारके बताये गए हैं- शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगी । जो अशुभ प्रवृत्तियोंसे राग तो नहीं करते, किन्तु जिनके व्रतादि रूप शुभ प्रवृत्तियोंमें राग विद्यमान है वे सराग चारित्रके धारक श्रमण कहे गए हैं । परन्तु जिनके किसी भी प्रकारका राग नहीं है, वे वीतराग श्रमण है । किन्तु यह निश्चित है कि समभाव और आत्मध्यानकी चर्या पूर्वक जो साधु वीतरागताको उपलब्ध होता है, वही कर्म-क्लेशोंका नाशकर सच्चा सुख या मोक्ष प्राप्त करता है, अन्य नहीं । इस सम्बन्धमें जिनागमका सूत्र यही है कि रागी आत्मा कर्म बाँधता है और राग रहित आत्मा कर्मोंसे मुक्त होता है । निश्चयसे जीवोंके बन्धका संक्षेप यही जानना चाहिए । इसका अर्थ यह है कि चाहे गृहस्थ हो या सन्त, सभी राग
१. भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स ।
तं अप्पसहावठिदे णहु भण्णइ सो वि अण्णाणी ॥ -- मोक्षपाहुड, गा० ७६
२. जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जमि ।
जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे ॥ - मोक्षपाहुड, गा० ३१ ३. जो खविदमोहकलुसो विसयविरत्तो मणो णिरंभित्ता ।
समव दो सहावे सो अप्पाणं हवदि झादा ।। प्रवचनसार, गा० १९६ ४. जो णिहदमोहगंठी रागपदोसे खवीय सामण्णे ।
होज्जं समसुहदुक्खो सो सोक्खं अक्खयं लहदि । वही, गा० १९५
५. असुहेण रायरहिओ वयाइरायेण जो हु संजुत्तो ।
सो इह भणिय सराओ मुक्को दोहणं पि खलु इयरो | नयचक्र, गा० ३३१
६. रत्तो बंधदि कम्मं मुच्चदि कम्मेहि रागरहिदप्पा |
एसो बंधसमासो जीवाणं जाण णिच्छयदो । प्रवचनसार, गा० १७९
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