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कहते हैं । जैनधर्मकी मूलधुरी वीतरागता है । वीतरागताकी परिणतिमें जो निमित्त होता है, उसे ही लोकमें साधन या कारण कहा जाता है । वीतरागताकी प्राप्ति में सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र व तप साधन कहे जाते हैं । इनको ही जिनागममें आराधना नाम दिया गया है। आराधनाका मूल सूत्र है— वस्तु स्वरूपकी वास्तविक पहचान | जिसे आत्माकी पहचान नहीं है, वह वर्तमान तथा अनुभूयमान शुद्ध दशाका बोध नहीं कर सकता । अतएव सकर्मा तथा अबन्ध - दोनों ही दशाओंका वास्तविक परिज्ञान कर साधक भेद-विज्ञानके बलपर मुक्तिकी आराधनाके मार्गपर अग्रसर हो सकता है ।
जैनधर्मकी मूलधारा वीतरागतासे उपलक्षित वीतराग परिणति है । उसे लक्षकर जिस साधनापद्धतिका निर्वचन किया गया है, वह एकान्ततः न तो ज्ञानप्रधान है, न चारित्रप्रधान और न केवल मुक्तिप्रधान । वास्तवमें इसमें तीनोंका सम्यक् समन्वय है । दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि यह सम्यक् दर्शन ज्ञानमूलक चारित्रप्रधान साधना पद्धति । यथार्थ में चारित्र पुरुषका दर्पण है । चारित्रके निर्मल दर्पण में ही पुरुषका व्यक्तित्व सम्यक् प्रकार प्रतिबिम्बित होता है । वास्तवमें चारित्र ही धर्म है । जो धर्म है वह साम्य है - ऐसा जिनागममें कहा गया है। मोह, राग-द्वेषसे रहित आत्माका परिणाम साम्य है । जिस गुणके निर्मल होनेपर अन्य द्रव्योंसे भिन्न सच्चिदानन्द विज्ञानघनस्वभावी कालिक ध्रुव आत्मचैतन्यकी प्रतीति हो, उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं । सम्यग्दर्शनके साथ अविनाभाव रूपसे भेद - विज्ञान युक्त जो है, वही सम्यग्ज्ञान है तथा राग-द्वेष व योगकी निवृत्ति पूर्वक स्वात्म-स्वभावमें संलीन होना सम्यक् चारित्र । ये तीनों साधन क्रमसे पूर्ण होते हैं । सर्वप्रथम सम्यग्दर्शनकी पूर्णता होती है, तदनन्तर सम्यग्ज्ञानकी और अन्तमें सम्यक् - चारित्रमें पूर्णता होती है । अतएव इन तीनोंकी पूर्णता होनेपर ही आत्मा विभाव-भावों तथा कर्म बन्धनों से मुक्त होकर पूर्ण विशुद्धताको उपलब्ध होता है । यही कारण है कि ये तीनों मिलकर मोक्षके साधन माने गए हैं। इनमें से किसी एकके भी अपूर्ण रहनेपर मोक्ष नहीं हो सकता ।
जैनधर्म विशुद्ध आध्यात्मिक है । अत: जैन साधु-सन्तोंकी चर्या भी आध्यात्मिक है । किन्तु अन्य सन्तोंसे इनकी विलक्षणता यह है कि इनका अध्यात्म चारित्रनिरपेक्ष नहीं है । जैन सन्तोंका जीवन अथसे इति तक परमार्थ चारित्रसे भरपूर है । उनकी सभी प्रवृत्तियाँ व्यवहार चारित्र सापेक्ष होती हैं । दूसरे शब्दोंमें जैन सन्त समन्वय और समताके आदर्श होते हैं । उनमें दर्शन, ज्ञान और चारित्रका समन्वय तथा सुख-दुःखादि परिस्थितियोंमें समताभाव लक्षित होता है । उनका चारित्र राग-द्वेष, मोहसे रहित होता है । इस प्रकार अन्तरंग और बहिरंग — दोनोंसे आराधना करते हुए जो वीतराग चारित्रके अविनाभूत निज शुद्धात्माकी भावना करते हैं, उन्हें साधु कहते है । उत्तम साधु स्वसंवेदनगम्य परमनिर्विकल्प समाधिमें निरत
१. उज्जोवणमुज्जवणं णिव्वहणं साहणं च णिच्छरणं ।
दंसणणाणचरितं तवाणमाराहणा भणिदा ॥ भगवती आराधना, अ०१, गा० २
चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्तिणिद्दिट्ठो ।
मोहक्खोह विहीणो परिणामो अप्पणो हु समो ॥ प्रवचनसार, गा० ७
३. " आभ्यन्तरनिश्चयचतु विधाराधनाबलेन च बाह्याभ्यन्तरमोक्षमार्गद्वितीयनामाभिधेयेन कृत्वा यः कर्ता वीतरागचारित्राविनाभूतं स्वशुद्धात्मानं साधयति भावयति स साधुर्भवति ।"
- बृहद्द्रव्यसंग्रह, गा० ५४ की व्याख्या
२.
तथा
दंसणणाणसमग्गं मग्गं मोक्खस्स जो हु चारितं ।
साधयदि णिच्चसुद्धं साहू स मुणी णमो तस्स ।। - द्रव्यसंग्रह, गा० ५४
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