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क्रियाको बदलकर उसे शक्तिहीन कर सकता है; परन्तु सभी द्रव्य अपने-अपने परिणमनमें स्वतन्त्र हैं । उनको मूलरूपसे बनाने और मिटानेका भाव करना कर्तु स्वरूप अहंकार है, घोर अज्ञान है'।
जैनदर्शन कहता है कि एकान्तसे इंत या अद्वैत नहीं माना जा सकता है। किन्तु लोकमें पुण्य-पाप, शुभ-अशुभ इहलोक-परलोक, अन्धकार-प्रकाश, ज्ञान अज्ञान, बन्ध-मोक्षका होना पाया जाता है, अतः व्यवहारसे मान लेना चाहिए। यह कथन भी उचित नहीं है कि कर्मद्वैत, लोकद्वैत आदिकी कल्पना अविद्या के निमित्त से होती है क्योंकि विद्या अविद्या और वन्य-मोक्षकी व्यवस्था अद्वैतमें नहीं हो सकती है। हेतुके द्वारा यदि अद्वैतकी सिद्धि की जाए, तो हेतु तथा साध्य के सद्भावमें इसकी भी सिद्धि हो जाती है। इसी प्रकार हेतुके बिना यदि अद्वैतकी सिद्धिकी जाये, तो वचन मात्रसे द्वैतकी सिद्धि हो जाती है । अतएव किसी अपेक्षासे हैतको और किसी अपेक्षासे अद्वैतको माना जा सकता है; किन्तु वस्तुस्थिति वैसी होनी चाहिए क्योंकि आत्मद्रव्य परमार्थसे बन्ध और मोक्षमें अतका अनुसरण करनेवाला है। इसी विचार- सरणिके अनुरूप परमार्थोन्मुखी होकर व्यवहारमार्ग में प्रवृत्तिका उपदेश किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्दका कथन है - साधु पुरुष सदा सम्यक दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रका सेवन करें परमार्थमें इन तीनोंको आत्मस्वरूप ही जाने । परमार्थ या निश्चय अभेद रूप है और व्यवहार भेद रूप है। जिनागमका समस्त विवेचन परमार्थ और व्यवहार —- दोनों प्रकारसे किया गया है । येही दोनों अनेकान्तके मूल हैं । साधना : क्रम व भेद
है
जिस प्रकार ज्ञान, ज्ञप्ति ज्ञाता और शेयका प्रतिपादन किया जाता है, उसी प्रकारसे साधन, सापना, साधक और साध्यका भी विचार किया गया है। साधनसे ही सामनाका क्रम निश्चित होता है । साधनका निश्चय साध्य-साधक सम्बन्धसे किया जाता है । सम्बन्ध द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके आधारपर निश्चित किया जाता है। जहाँ पर अभेद प्रधान होता और भेद गौण अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भावकी प्रत्यासत्ति होती है, उसे सम्बन्ध कहते हैं स्वभाव मात्र स्वस्वामित्वमयी सम्बन्ध-यशक्ति कही जाती है । साधनाके मूलमें यही परिणमनशील लक्षित होती है। जैनदर्शनके अनुसार मनुष्यमात्रका साध्य कर्मक्लेश मुक्ति या आत्मोपलब्धि है। अपने असाधारण गुणसे युक्त स्व-परप्रकाश आत्मा स्वयं साधक है। दूसरे शब्दोंसे शुद्ध आत्माकी स्वतः उपलब्धि साध्य है और अशुद्ध आत्मा साधक है। आत्मद्रव्य निर्मल ज्ञानमय है जो परमात्मा रूप है । इस प्रकार साध्यको सिद्ध करनेके लिए जिन अन्तरंग और बहिरंग निमित्तोंका आलम्बन लिया जाता है, उनको साधन कहा जाता है और तद्रूप प्रवृत्तिको सामना १. अज्ञानतस्तु सतॄणाभ्यवहारकारी ज्ञानं स्वयं किल भवन्नपि रज्यते यः ।
पीत्वा ज्ञानं दधीक्षुमधुराम्लरसातिगृद्धया गां दोग्धि दुग्धमिव नूनमसी रसालाम् ॥
२. कर्मद्वैतं फलद्वैतं लोकद्वैतं च नो भवेत् ।
विद्या विद्याद्वयं न स्याद् बन्धमोक्षद्वयं तथा ॥
तो रद्वैतसिद्धिश्चेद् द्वैतं स्यातुसाध्ययोः ।
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हेतुना चेद्विना सिद्धित वाङ्मात्रतो न किम् । आप्तमीमांसा प० २ का० २५-२६ ३. दंसणणाणचरिताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं ।
पुण जाण तिण्णि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो । समयसार, गा० १६
ताणि
४. जेहउ णिम्मलु पाणमउ सिडिहि विसर देउ ।
तेहउ शिवसइ बंभु पर देहहं मं करि भेउ ॥ परमात्म प्रकाश १, २६
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- समयसार कलश श्लो० ५७
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