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उनके लिए परमब्रह्म ही एक उपादेय होता है, शुद्धात्मतत्त्वरूप परमब्रह्मके सिवाय सब हेय है । इसलिये उपादेयताकी अपेक्षा परमब्रह्म अद्वितीय है । शक्ति रूपसे शुद्धात्मस्वरूप जीव और अनन्त शुद्धात्माओं के समूह रूप परब्रह्ममें अंश-अंशी सम्बन्ध है । परब्रह्मको उपलब्ध होते ही वे जीवन्मुक्त हो जाते हैं, उनमें और परब्रह्म में कोई अन्तर नहीं रहता है । यही इस साधनाका चरम लक्ष्य है ।
सन्तों को अविच्छिन्न परम्परा
संक्षेप में, जैन श्रमण-सन्तोंकी परम्परा आत्मवादी तप त्यागकी अनाद्यनन्त प्रवहमान वह धारा है जो अतीत, अनागत और वर्तमानका भी अतिक्रान्तकर सतत त्रैकालिक विद्यमान है। भारतीय सन्तोंकी साधना-पद्धति में त्यागका उच्चतम आदर्श, अहिंसाका सूक्ष्मतम पालन, व्यक्तित्वका पूर्णतम विकास तथा संयम एवं तपकी पराकाष्ठा पाई जाती है । साधनाकी शुद्धता तथा कठोरता के कारण छठी शताब्दीके पश्चात् भलेही इसके अनुयायिओंकी संख्या कम हो गई हो, किन्तु आज भी इसकी गौरव गरिमा किसी भी प्रकार क्षीण नहीं हुई है । केवल इस देशमें ही नहीं, देशान्तरोंमें भी जैन सन्तोंके विहार करनेके उल्लेख मिलते हैं । पालि-ग्रन्थ "महावंश" के अनुसार लं कामें ईस्वीपूर्व चौथी शताब्दी में निर्ग्रन्थ साधु विद्यमान थे । सिंहलनरेश पाण्डुकामयने अनुरुद्धपुरमें जैनमन्दिरका निर्माण कराया था । तीर्थंकर महावीरके सम्बन्ध में कहा गया है कि उन्होंने धर्म प्रचार करते हुए वृकार्थक, वाह्लीक, यवन, गान्धार, क्वाथतोय, समुद्रवर्ती देशों एवं उत्तर दिशाके तार्ण, कार्ण एवं प्रच्छाल आदि देशोंमें विहार किया था। यह एक इतिहासप्रसिद्ध घटना मानी जाती है कि सिकन्दर महान् के साथ दिगम्बर मुनि कल्याण एवं एक अन्य दिगम्बर सन्तने यूनानके लिए विहार किया था। यूनानी लेखकोंके कथनसे बेक्ट्रिया और इथोपिया देशों में श्रमणोंके विहारका पता चलता है । मिश्रमें दिगम्बर मूर्तियोंका निर्माण हुआ था । वहाँकी कुमारी सेन्टमरी आर्यिकाके भेष में रहती थी । भृगुकच्छके श्रमणाचार्यने एथेन्स में पहुँचकर अहिंसाधर्मका प्रचार किया था । हुएनसाँगके वर्णनसे स्पष्ट रूपसे ज्ञात होता है कि सातवीं शताब्दी तक दिगम्बर मुनि अफगानिस्तानमें जैनधर्मका प्रचार करते रहे हैं । जी०एफ० मूरका कथन है कि ईसाकी जन्म शतीके पूर्व ईराक, शाम और फिलिस्तीन में जैन मुनि और बौद्ध भिक्षु सैकड़ोंकी संख्यामें चारों ओर फैलकर अहिंसाका प्रचार करते थे । पश्चिमी एशिया, मिश्र, यूनान और इथोपियाके पहाड़ों व जंगलोंमें उन दिनों अगणित भारतीय साधु रहते थे । वे अपने आध्यात्मिक ज्ञान और त्यागके लिए प्रसिद्ध थे जो वस्त्र तक नहीं पहनते थे । मेजर जनरल जे० जी० आर० फर्लांगने भी अपनी खोज में बताया है कि ओकसियना केस्पिया एवं बल्ख
तथा समरकन्दके नगरोंमें जैनधर्मके
वर्तमान में भी मुनि सुशीलकुमार
केन्द्र पाए गए हैं, जहाँसे अहिंसा धर्मका प्रचार एवं तथा भट्टारक चारुकीर्तिके समान सन्त इसे जीवित रखे
प्रसार होता था "
हैं ।
हुए
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विगत तीन सहस्र वर्षोंमें जैनधर्मका जो प्रचार
व
प्रसार हुआ, उसमें वैश्योंसे भी अधिक ब्राह्मणों
तथा क्षत्रियोंका योगदान रहा है। भगवान महावीरके पट्टधर शिष्योंमें ग्यारह गणधर थे जो सभी ब्राह्मण
।
१. आचार्य जिनसेन : हरिवंशपुराण, ३, ३-७
२. डा० कामताप्रसाद जैन : दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि, द्वितीय संस्करण, पृ० २४३ ३. ठाकुरप्रसाद शर्मा हुएनसांगका भारतभ्रमण, इण्डियन प्रेस, प्रयाग, १९२९, पृ० ३७ ४. हुकमचन्द अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० ३७४
५. साइन्स आव कम्पेरेटिव रिलीजन्स, इन्ट्रोडक्शन, १९९७, पृ० ८
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