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परिचय तो मिलता ही है। इस ग्रन्थको पढ़नेसे पता चलता है कि लेखकने पूर्वाचार्यों द्वारा रचित न्याय ग्रन्थोंका गम्भीर आलोड़न किया है और उसे सहज बोधगम्य भाषामें विषयवार प्रस्तुत किया है। पं० गोपीनाथ कविराजके अनुसार जैन न्यायके कुछ महत्वपूर्ण पक्षको समझने के लिए यह ध्यानपूर्वक लिखी गई पुस्तक लेखकके तीक्ष्ण अध्ययन और सुस्पष्ट लेखनकी कलाका फल है।
प्रस्तुत पुस्तकके लिए लेखकको १९२१ में प्रेरणा मिली थी और तबसे विचारोंको कार्यरूपमें परिणत करने में कोई पच्चीस वर्ष लग गये न्यायके समान असामान्य विषयकी पुस्तकका प्रकाशन भी एक समस्या माननी चाहिये। यही कारण है कि उसे प्रकाशित होने के भी बीस वर्षका समय लग गया । प्रसन्नता इस बात की है कि इसे भारतीय ज्ञानपीठ जैसी विश्रुत संस्थाने १९६६ में प्रकाशित किया जिससे यह अधिकाधिक पाठकोंकी दृष्टि और परखमें पहुँच सके। इस पुस्तकके पूरकके रूपमें दलसुख भाई मालवणियाका आगम युगका जैनदर्शन भी इसी वर्ष प्रकाशित हुआ जो प्रमाण व्यवस्था युगकी पूर्ववर्ती न्यायतन्त्रकी मान्यताओंको प्रस्तुत करता है ।
सामान्यतः जैनदर्शन के सम्बन्ध में अनेक ग्रन्थ हिन्दी और अंग्रेजीमें लिखे गये हैं जिनमें लोकव्यवस्था प्रमेयनिरूपण, कर्मसिद्धान्त के साथ-साथ प्रमाण - मीमांसा भी दी गई है । लेकिन ऐसे ग्रन्थोंमें प्रमाणोंका सामान्य विवरण ही मिल सकता है, पूर्ण शास्त्रीय विवरण नहीं । यह ५० - १९४ पृष्ठोंका सीमित रहे हैं। फलत जन प्रमाण-मीमांसाके सम्बन्धमें हिन्दी में एक विशिष्ट ग्रन्थकी आवश्यकता रही है। प्रस्तुत ग्रन्थने उस कमीको पूरा किया है, यह निःसन्देह कहा जा सकता है। इसका ३०० पृष्ठीय विवरण जैन प्रमाणशास्त्र की पृष्ट आधारशिलाका काम करता है।
विषय-विवरण
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ग्रन्थके विवरणको विषयवार सात अध्यायों में प्रस्तुत किया गया है। : १. पृष्ठभूमि २ प्रमाण, ३. प्रमाण के भेद ४ परोक्ष प्रमाण ५. श्रुतके दो उपयोग, ६ प्रमाणका फल और ७. प्रमाणाभास । इनमें प्रथम चार अध्याय ग्रन्थका ८५ प्रतिशत कलेवर बनाते हैं । यहाँ ग्रन्थके प्रमुख पाँच अध्यायोंकी विषय वस्तुपर विचार किया गया है। प्रथम अध्यायमें भारतीय और जैन न्यायका ऐतिहासिक विवरण देते हुए इसके प्रारम्भ व विकासमें आ० कुंदकुंद, उमास्वाति, स्वामी संगतभद्र, सिद्धसेन दिवाकर, पात्रकेसरी, भट्ट अकलंक, विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि, प्रभाचन्द्र वादिदेय, हेमचन्द्र और यशोविजय सूरि आदि प्रमुख आचार्यक योगदानका अनेक उद्धरणों सहित निरूपण किया गया है। यद्यपि उन्होंने जैन दर्शनके समान जैन न्यायके विकासको चार काल कोटियोंमें वर्गीकृत नहीं किया है, फिर भी उनके विवरण से ये काल कोटियां स्वतः स्पष्ट हो जाती हैं । आ० समन्तभद्र, अकलंक और विद्यानन्दके योगदानको विशेषतः निरूपित करते हुए प्रत्यक्ष परोक्षकी परिभाषा, प्रमाण लक्षण तथा प्रमाण फल आदिकी चर्चा करते हुए उनके न्याय साहित्यका संक्षिप्त परिचय भी दिया है । इस अध्याय में विभिन्न दर्शनोंके मूल ग्रन्थों तथा सम्बन्धित साहित्य के ३५ सन्दर्भ दिये गये हैं । इनके आधारपर लेखककी गहन अध्ययनशीलता अध्ययनको संक्षिप्त व रोचक रूपमें प्रस्तुत करनेकी क्षमता एवं तुलनात्मक अध्ययनकी प्रेरक प्रवृत्तिका सहज ही भान हो जाता है।
द्वितीय अध्यायमें ७२ सन्दर्भों के माध्यम से प्रमाण और प्रामाण्यपर विचार किया गया है। जैन दार्शनिकों द्वारा ४-१२ वीं सदी तक दी गयी प्रमाणकी विभिन्न परिभाषाओंका विवेचेन करते हुए 'स्त्रापूर्वाव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्' की विशेष चर्चा की गयी है। अनधिगत और अपूर्व पदोंके सम्बन्ध में विद्यमान मतवादोंकी शास्त्रीय विवेचना करते हुए यह बताया गया है कि जहाँ दिगम्बर परम्परामें धारावाहिक ज्ञानकी प्रमाणत के विषयमें विवाद है, वहीं श्वेताम्बर परम्परा उसे प्रमाण ही मानती है ।
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