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लौकिक और वैदिक-दोनों ही प्रकारके शब्द स्वरूप, संकेतग्रहणकी दृष्टिसे एकसमान ही होते हैं। इसी तरह स्फोटवाद भी विचारसरणिमें उचित नहीं ठहरता। मीमांसक और वैयाकरणोंके मतके विरुद्ध, जैनोंकी मान्यता यह रही है कि संस्कृतके साथ-साथ प्राकृत और अन्य भाषाओंके शब्द भी वाचक होते हैं, क्योंकि ये सभी शब्द अनादिकालसे प्रयोग. धर्मसाधनत्व, विशिष्ट पुरुष वाचकत्व एवं विशिष्टार्थ गमकत्वके समान रूपसे शुद्ध हैं।
इन्हीं शब्दोंके आधार पर श्रतज्ञान होता है। जो मन और श्रवणेन्द्रियका विषय है । इसके दो भेद हैं-अक्षरश्रत और अनक्षरश्रुत । इनकी परिभाषाओंके विषयमें पूज्यपाद और अकलंकके मतोंकी समीक्षासे लेखकने श्रुत ज्ञानोंको अक्षरात्मक ही बताया है। इस विषयमें लेखकने विद्यानन्दके अर्थकी भी चर्चा की है जिन्होंने प्रारम्भिक मतभेद प्रदर्शित कर अन्त में अकलंककी मान्यताको पुष्ट किया है। श्वेताम्बर मान्यता भी श्रुतज्ञानको शब्दज ही माना है। विशेषावश्यकभाष्यके प्रकरणके विवरणकी समीक्षा में लेखकने परोपदेश या ग्रन्थरूप शब्दको श्रुतज्ञान (द्रव्यश्रुत) मानते हुए भी एकेन्द्रियोंके भावश्रुत बतलाया है जो आगमिक मान्यताकी व्याख्या के लिए है। दोनों ही मान्यताएँ इस विषयमें एकमत हैं कि शब्दयोजना सहित ज्ञान श्रुतज्ञान ही होता है लेकिन इसमें मतभेद है कि शब्दयोजना सहित ज्ञान ही श्रुतज्ञान है । लेखक का मत है कि इस मतभेदमें विशेष तथ्य नहीं है। केवल दृष्टिभेदका ही अन्तर है। इस विषयमें श्वेताम्बर ग्रन्थोंके आलोड़नके अनुसार अक्षर संज्ञाक्षर, व्यञ्जनाक्षर (द्रव्यश्रत) और लब्ध्यक्षर (भावश्रुत) के भेदसे तीन प्रकारके होते हैं लेकिन दिगम्बर परम्परा लब्ध्यक्षरको अनाक्षरात्मक मानती है ।
श्रुतज्ञानके भेदोंकी चर्चा करते हुए लेखकने बताया है कि एक ओर जहाँ श्वेताम्बर परम्परामें श्रुतके चौदह भेद माने गये हैं, वहाँ दिगम्बर परम्परामें केवल चार भेदों (अक्षर, अनाक्षर, अंगबाह का ही उल्लेख है, लेकिन अन्य भेद इस परम्पराको मान्य हो सकते हैं।
इस प्रकार ८६ सन्दर्भोके इस अध्यायमें लेखकने अनेक जटिल विषयोंका केवल विवरणात्मक अध्ययन ही नहीं, अपितु तुलनात्मक अध्ययन भी दिया है । कई स्थानों पर लेखकने अपने स्वतन्त्र चिन्तनको भी प्रकट किया है ।
पंचम अध्यायमें श्रुतके दो विशिष्ट प्रकारके उपयोगोंका ४९ सन्दर्भोके आधार पर शास्त्रीय विवरण दिया गया है स्याद्वाद और नयवाद । ये दोनों पद्धतियाँ हैं। इन सन्दर्भोमें समन्तभद्र, अकलंक, विद्यानन्द और प्रभाचन्द्रके न्याय ग्रन्थ प्रमुख हैं । इन ग्रन्थोंका समय-परिसर हो अनेकान्त स्थापन युग कहा जाता है। मालवणियाजीने स्याद्वादके मूल अनेकान्तवादके अनेक रूपोंकी आगमकालीनता प्रदर्शित की है और प्रस्तुत ग्रन्थके लेखकने इसके आगेका संक्षेपण किया है। इन दोनों ही विषयों पर अनेक लेखकोंने अपने ग्रन्थोंमें व्यावहारिक दृष्टिसे प्रकाश डाला है पर न्यायशास्त्रीय दृष्टिसे इन्हें प्रकाशित करनेका श्रेय जैन न्याय के ही लेखकको है। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकके विवरणसे ज्ञात होता है कि संशयके विषयभत वस्तुके धर्म सात ही प्रकारके हो सकते हैं। यही कारण है कि स्याद्वाद सप्तभंग-मय होता है। अकलंकके अनुसार अनेकधर्मात्मक वस्तुका बोध करानेके लिए प्रवर्तमान शब्की प्रवृत्ति दो रूपसे होती है : क्रमसे या यौगपद्यसे । यौगपद्य कथन प्रमाण होता है और क्रमिक कथन नय कहा जाता है। इन दोनों ही कथनभेदोंकी अपनीअपनी सप्तभंगी होती है। इन सप्तभंगोंमें दो सामान्य पदोंका उपयोग किया जा सकता है-स्यात् और एव । इससे कथनके दो भेद हो जाते हैं। स्यादस्ति जीवः, स्यादस्त्येव जीवः । कुछ आचार्योका कथन है कि इन दोनों कथनोंमें विशेष अन्तर नहीं है। लेकिन कुछ आचार्य 'स्यादस्ति जीवः' की शैलीको सकलादेशी स्याद्वादी प्रमाण मानते हैं और 'स्यादस्त्येव जीव:' की शैलीको एवकार होनेके कारण नय मानते हैं।
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