________________
कर्मशास्त्र : मनोविज्ञानकी भाषामें
युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ दर्शनके क्षेत्रमें शाश्वत और अशाश्वत-दोनों चर्चनीय रहे हैं। इन दोनोंके तीन रूप उपलब्ध होते हैं-१. शाश्वतवाद, २. अशाश्वतवाद, ३. शाश्वत-अशाश्वतवाद । जैनदर्शनने तीसरा विकल्प मान्य किया। जगत्में जिसका अस्तित्व है, वह केवल शाश्वत नहीं है, केवल अशाश्वत नहीं है, शाश्वत और अशाश्वतदोनोंका सहज समन्वय है। तत्वकी दष्टिसे जो सिद्धान्त है. उसपर मैं काल-सापेक्ष विमर्श करना
कर्म भारतीय दर्शनमें एक प्रतिष्ठित सिद्धान्त है। उस पर लगभग सभी पनर्जन्मवादी दर्शनोंमें विमर्श प्रस्तुत किया है। पूरी तटस्थताके साथ कहा जा सकता है कि इस विषयका सर्वाधिक विकास जैनदर्शनमें हुआ है। इस विषय पर विशाल साहित्यका निर्माण हुआ है। विषय बहत गंभीर और गणितकी जटिलतासे बहुत गुम्फित है। सामान्य व्यक्ति उसकी गहराई तक पहुँचने में काफी कठिनाई अनुभव करता है। कहा जाता है, आईस्टीनके सापेक्षवादके सिद्धान्तको समझनेवाले कुछ बिरले ही वैज्ञानिक है। यह कहना भी सत्यकी सीमासे परे नहीं होगा कि कर्मशास्त्रको समझनेवाले भी समूचे दार्शनिक जगत में कुछ विरले ही लोग हैं।
कर्मशास्त्रमें शरीर-रचनासे लेकर आत्माके अस्तित्व तक, बन्धनसे लेकर मुक्ति तक सभी विषयों पर गहन चिन्तन और दर्शन मिलता है। यद्यपि कर्मशास्त्रके बड़े-बड़े ग्रन्थ उपलब्ध है, फिर भी हजारों वर्ष पुरानी पारिभाषिक शब्दावलीको समझना स्वयं एक समस्या है। और जब तक सूत्रात्मक परिभाषामें गुथे हुए विशाल चिन्तनको पकड़ा नहीं जाता, परिभाषासे मुक्त कर वर्तमानके चिन्तनके साथ पढ़ा नहीं जाता और वर्तमानकी शब्दावलीमें प्रस्तुत नहीं किया जाता, तब तक एक महान् सिद्धान्त भी अर्थशून्य जैसा हो जाता है।
_ आजके मनोवैज्ञानिक मनकी हर समस्या पर अध्ययन और विचार कर रहे हैं। मनोविज्ञानको पढ़ने पर मुझे लगा कि जिन समस्याओं पर कर्मशास्त्रियोंने अध्ययन और विचार किया था, उन्हीं समस्याओं पर मनोवैज्ञानिक अध्ययन और विचार कर रहे हैं। यदि मनोविज्ञानके सन्दर्भ में कर्मशास्त्रको पढा जाए, तो उसकी अनेक गुत्थियाँ सुलझ सकती है, अनेक अस्पष्टताएं स्पष्ट हो सकती है। कर्मशास्त्रके सन्दर्भमें यदि मनोविज्ञानको पढ़ा जाए, तो उसकी अपूर्णताको भी समझा जा सकता है और अब तक अनुत्तरित प्रश्नोंके उत्तर खोजे जा सकते हैं। वैयक्तिक भिन्नता
हमारे जगत में करोड़ों-करोड़ मनुष्य हैं। वे सब एक ही मनुष्य जातिसे संबद्ध है। उनमें जातिगत एकता होने पर भी वैयक्तिक भिन्नता होती है। कोई भी मनुष्य शारीरिक या मानसिक दृष्टिसे सर्वथा किसी दूसरे मनुष्य जैसा नहीं होता। कुछ मनुष्य लम्बे होते हैं, कुछ बौने होते हैं। कुछ मनुष्य गोरे होते है, कुछ काले होते है । कुछ मनुष्य सुडौल होते हैं, कुछ भद्दी आकृतिवाले होते हैं। कुछ मनुष्योंमें बौद्धिक मन्दता होती है, कुछमें विशिष्ट बौद्धिक क्षमता होती है। स्मृति और अधिगम क्षमता भी सबमें समान नहीं होती । स्वभाव भी सबका एक जैसा नहीं होता। कुछ शान्त होते हैं, कुछ बहुत क्रोधी होते हैं। कुछ प्रसन्न प्रकृतिके होते हैं, कुछ उदास रहनेवाले होते हैं। कुछ निःस्वार्थवृत्ति के लोग होते हैं, कुछ स्वार्थ
१५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org