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हमें यह सूचित करते हुए प्रसन्नता और गौरवका अनुभव होता है कि जैनधर्म और दर्शनके प्रसिद्ध विद्वान पण्डितप्रवर श्री कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्रीने दि० जैन साहित्यका इतिहास तीन भागोंमें लिखकर उस कमी को बहुत कुछ पूरा किया। ये तीन भाग हैं : (१) जैन साहित्यका इतिहास - पूर्वपीठिका, (२) जैन साहित्यका इतिहास - प्रथम भाग तथा (३) जैन साहित्यका इतिहास द्वितीय भाग । ये तीनों ग्रन्थ श्री गणेशप्रसाद वर्णो जैन ग्रन्थमालासे क्रमशः १९६३, १९७५ तथा १९७६ में प्रकाशित हुए हैं । जैन साहित्यका इतिहास पूर्वपीठिका विवरण
सन् १९५४ में जैन साहित्य के इतिहासको लिखे जानेकी एक रूप-रेखा स्व० पं० महेन्द्र कुमारजी तथा पं० फूलचन्द्रजी शास्त्रीके साथ पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने तैयार की थी जो पुस्तिकाके रूपमें प्रकाशित कर दी गयी थी । प्रस्तुत ग्रन्थ उसी रूपरेखाके अनुसार लिखा गया है। इसका खोजपूर्ण प्राक्कथन भारतीय विद्याओंके प्रसिद्ध विद्वान डॉ० वासुदेवशरण अग्रवालने लिखा है। इस ग्रन्थमें जैनधर्मकी मूल स्थापनासे लेकर संघभेद तकके सुदीर्घ काल तकका इतिहास लिखा गया है । इसमें श्रमण परम्पराका इस देशमें जिस प्रकार विकास हुआ, उसका विवेचन किया गया है ।
डॉ. अग्रवालने अपने 'प्राक्कथन' में जिन महत्त्वपूर्ण तथ्योंकी ओर संकेत किया है, वे इस प्रकार हैं : १. जैनधर्मकी परम्परा अत्यन्त प्राचीन है ।
२. भागवत में इस बात का उल्लेख है कि महायोगी भरत, ऋषभके शतपुत्रोंमें जेष्ठ थे और उन्हीं के नामसे यह देश भारत वर्ष कहलाया ।
३. जैन और कुछ जैनेतर विद्वान भी सिन्धुघाटी सभ्यताकी पुरुषमूर्तिकी नग्नता और कायोत्सर्ग मुद्रा आधारपर उसे ऐसी प्रतिमा समझते हैं जिसका सम्बन्ध किसी तीर्थकरसे रहा है ।
४. इस देशमें प्रवृत्ति और निवृत्ति की दो परम्परायें ऋषभदेवके समय में प्रचलित थीं । निवृत्ति परम्पराको मुनि परम्परा कहा जाता था । ऋग्वेद ( १०-१७) में सात वातरशना मुनियोंका वर्णन है । वातरशनाका वही अर्थ है जो दिगम्बरका है ।
५. श्रमण परम्पराके कारण ब्राह्मण धर्ममें वानप्रस्थ और संन्यासको प्रश्रय मिला ।
पूरे ग्रन्थको चार खण्डों में विभाजित किया गया है ( १ ) जैनधर्मके इतिहासकी खोज, (२) प्राचीन स्थितिका अन्वेषण, (३) ऐतिहासिक युगमें तथा ( ४ ) श्रुतावतार |
'जैन धर्म के इतिहासकी खोज' नामक खण्डमें पाश्चात्य विद्वानोंमें जैन धर्मके सम्बन्धमें मतभेद, याकोबी और बूहलरकी खोजें तथा जैन धर्मकी प्राचीनतापर प्रकाश डाला गया है। पाश्चात्य विद्वानों में कोलबुक, स्टीवेन्सन और थामसका विश्वास था कि बुद्ध, जैन धर्मके संस्थापकका विद्रोही शिष्य था । किन्तु उससे भिन्न मत एच०एन० विलसन, बेवर और लार्सनका था । उनके मतानुसार जैनधर्म बौद्ध धर्मकी एक प्राचीन शाखा थी ।
'प्राचीन स्थितिका अन्वेषण' नामक खण्डमें वेद, आरण्यक उपनिषद् और सिन्धुघाटी की सभ्यतामें श्रमण-संस्कृति के तत्त्वोंका अन्वेषण किया गया है जिनमें ऋग्वेदमें प्राप्त पणि, वातरशना ( दिगम्बर ), शिश्नदेव, हिरण्यगर्भ ( जिसकी तुलना ऋषभदेवसे की गयी है ) आदिकी समीक्षा की गयी है । डॉ० राधाकृष्णन्के अनुसार वेदोंमें ऋषभदेव आदि तीर्थंकरोंके नाम पाये जाते हैं । भागवत में ऋषभदेवका चरित्र वर्णित है । इस खण्ड में जैन पुराणोंमें श्री कृष्ण, बाइसवें तीर्थंकर नेमिनाथकी ऐतिहासिकता, द्रविड़ सभ्यता और जैनधर्म आदिका विस्तारके साथ वर्णन है ।
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