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जैनधर्म : एक समीक्षा
डॉ० विद्याधर जौहरपुरकर, जबलपुर प्राचीन समयमें धर्म और दर्शनके विद्वान् आचार्योंसे अपेक्षा की जाती थी कि वे स्वसमय और पर समय ( अपने सम्प्रदायके शास्त्र और दूसरे सम्प्रदायोंके शास्त्रों ) के ज्ञाता हों। परन्तु दूसरे सम्प्रदायोंके ग्रन्थोंका अध्ययन प्रायः खण्डन करनेक दृष्टिसे ही किया जाता था। उसमें वस्तुनिष्ठ दृष्टि प्रायः नहीं होती थी । उन्नीसवीं शताब्दोमें पाश्चात्य विद्वानोंने भारतीय साहित्यका जो अध्ययन किया, उसमें खण्डनकी दष्टि प्रायः नहीं थी । अतः धर्म और दर्शनके अध्ययनमें स्वस्थ निष्पक्षताका उदय हआ। उनकी प्रेरणासे भारतीय विद्वानोंमें भी एक दूसरेके मतोंको सहानुभतिसे समझनेकी भावना उत्पन्न हई। फलस्वरूप ऐसे ग्रन्थोंकी आवश्यकता अनुभव हुई जिनमें विभिन्न परम्पराओंके आधारभूत सिद्धान्तोंका परिचय सरल भाषामें प्राप्त हो। जैन विद्याके क्षेत्रमें जार्ज बलरका 'दि सेक्ट आफ दि जैनाज', श्रीमती स्टीवेन्सनका 'दि हार्ट आफ जैनिज्म', श्री पूरणचन्द्र नाहरका 'दि एपी टोन आफ जैनिज्म' और जुगमन्दरलाल जैनीका 'आउट लाइन्स आफ जैनिज्म' नामक ग्रन्थोंका इस दृष्टिसे उल्लेखनीय स्थान है। ये सब अंग्रेजीमें थे, अतः बहसंख्यक भारतीय अध्येताओंके लिए दुर्गम थे। साथ ही इसमें पहले तीन मुख्यतः श्वेताम्बर सम्प्रदायसे प्राप्त सामग्री तक सीमित थे और चौथा केवल दर्शन पक्षको प्रस्तुत करता था। अतः राष्ट्रभाषामें जैन परम्पराके विविध पक्षोंको सरल रूपमें प्रस्तुत करनेकी आवश्यकता बनी रही। श्रद्धेय पं० कैलाशचन्द्रजीका 'जैनधर्म' इस आवश्यकताकी पूर्तिका सफल प्रयास सिद्ध हआ।
सन् १९४८ में इसका पहला संस्करण स्व० सम्पूर्णानन्दजीके प्राक्कथनके साथ प्रकाशित हआ और उसका अभूतपूर्व स्वागत हुआ। उज्जैनके श्री लालचन्द्रजी सेठीने और फिर उत्तर प्रदेश सरकारने उसे पुरस्कृत किया । अनेक महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयोंके पाठ्यक्रममें उसे स्थान मिला। दो वर्षों में ही उसका दूसरा परिवर्तित संस्करण प्रकाशित हआ और वह भी शीघ्र ही समाप्त होनेसे पाँच वर्ष बाद तीसरा संशोधित संस्करण निकला । समीक्षकोंके सुझावोंपर पूरा ध्यान देकर पण्डितजीने प्रत्येक संस्करणमें ग्रन्थके स्वरूपको परिश्रम पूर्वक निखारा । सन् १९६३ में शोलापुरकी जीवराज जैन ग्रन्थमालाने श्री प्रेमचन्द्र देवचन्द्र शाह द्वारा किया गया इसका मराठी अनुवाद प्रकाशित किया तथा अगले ही वर्ष इसी ग्रन्थमालामें श्री अण्णाराम मिर्जी द्वारा किया गया कन्नड़ अनुवाद भी प्रकाशित हुआ।
- इस ग्रन्थमें लगभग चार सौ पृष्ठोंमें जैन परम्पराका सर्वांगीण परिचय मिल जाता है। पहले अध्यायमें जैनधर्मके प्रवर्तक तीर्थंकरोंके परिचयके साथ भारतके विभिन्न प्रदेशोंमें जैन परम्पराकी उन्नतिका संक्षिप्त, साधार विवरण है। दूसरे अध्यायमें दर्शनके क्षेत्रमें जैनोंके विशिष्ट योगदान-अनेकान्तवादके परिचयके साथ द्रव्य, तत्त्व, कर्म और ईश्वर सम्बन्धी विचारोंका विवेचन है। तीसरे अध्यायमें गृहस्थों
और मुनियोंके आचरणके नियमोंके विवेचनके साथ गुणस्थानोंकी चर्चा है । चौथे अध्यायमें दिगम्बर और श्वेताम्बर-दोनों सम्प्रदायोंके साहित्यका संक्षिप्त विवरण देते हुए पच्चीस प्रमुख आचार्योंका परिचय दिया गया है। पाँचवें अध्यायमें चित्रकला, मूर्तिकला और स्थापत्यकलाके क्षेत्र में जैनोंकी उपलब्धियोंकी चर्चा है। छठे अध्यायमें जैनोंके विभिन्न सम्प्रदायोंका परिचय है । सातवें अध्यायमें प्रमुख जैन वीरोंके परिचयके बाद जैन पर्वो और तीर्थक्षेत्रोंका विवरण है तथा अन्य सम्प्रदायोंमें जैनोंके विषयमें प्रचलित भ्रान्त धारणाओंको दूर करनेका प्रयत्न भी किया है। विभिन्न प्रसिद्ध ग्रन्थोंके कुछ भावपूर्ण सुभाषित वचनोंसे इस अध्ययन और ग्रन्थको समाप्त किया गया है। प्रत्येक अध्यायमें आधारपभूत प्राकृत और संस्कृत उद्धरणोंके अतिरिक्त
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