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पाश्चात्य और जैनेतर भारतीय पण्डितोंके अभिमतोंके सन्दर्भ भी दिये गये हैं जिनसे विस्तृत अध्ययनके इच्छुक लाभ उठा सकते हैं ।
प्राचीन भारतीय इतिहासकी सामग्री दो शताब्दियोंके विद्वानोंके परिश्रमके बाद भी अनेक विषयों में परिपूर्ण नहीं हो पायी है । अतः अनेक आचार्यों, ग्रन्थों और क्षेत्रोंके सम्प्रदाय और समयके विषय में परस्परविरोधी विवरण विभिन्न ग्रन्थों में मिलते हैं । इसलिए सम्भव है कि इस ग्रन्थके कुछ विवरण भी मतभेदका विषय बनें । परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि विद्वान लेखकने यथासम्भव निष्पक्ष रूपसे सब उपलब्ध सामग्रीका उपयोग किया है । न्यायकुमुदचन्द्र और जयधवला जैसे कठिन ग्रन्थोंके सम्पादन में अनेक वर्ष व्यतीत करने के बाद भी, पण्डितजीने इस ग्रन्थमें अत्यन्त सुबोध भाषाका प्रयोग किया है, यह भी उनकी विशेष सफलता है । वे एक प्रथितयश वक्ता हैं, वक्तृत्वके आवश्यक गुणोंमें सुबोधताका स्थान पहला है । पण्डितजीके इस ग्रन्थको पढ़ते समय अनेक बार अच्छा भाषण सुनने जैसा आनन्दका अनुभव होता है ।
'जैनधर्म' एक ऐसा ग्रन्थ है जो जैन और जैनेतर—दोनोंके लिये उपयोगी है । वर्तमान समयके जैन युवक जिन्हें प्राचीन भाषाओंके अध्ययनका अवसर नहीं मिलता या उसमें रुचि नहीं होती, इसके द्वारा विशाल प्राचीन साहित्यके सारभागसे परिचित हो सकते हैं और अधिक अध्ययनके लिये प्रेरित हो सकते हैं । जैनेतर विद्वान भी इस ग्रन्थ द्वारा जैन परम्पराके विविध अंगोंका साधार परिचय संक्षिप्त समयमें प्राप्त कर सकते हैं । विभिन्न सम्प्रदायोंमें सौमनस्य के साथ परस्पर परिचय बढ़ानेकी दिशामें इस ग्रन्थकी बड़ी उपयोगिता है ।
जैन साहित्यका इतिहास : एक समीक्षा
महामहोपाध्याय डॉ० हरीन्द्रभूषण, उज्जैन
जैन साहित्य के इतिहासके लेखनकी ओर जैन विद्याके पण्डितोंने उतना ध्यान नहीं दिया जितना आवश्यक था । यही कारण है कि भारतीय साहित्य में जैन साहित्यका अतिशय महत्त्व होते हुए भी इसके प्रति भारतीय विद्या विद्वानोंका झुकाव कम रहा है ।
सबसे पहले जर्मन भारतविद् डॉ० विष्टरनित्सने जर्मन भाषामें भारतीय भाषाका इतिहास लिखा जिसके एक संक्षिप्त अध्यायमें जैन साहित्यका विवरण है । इस ग्रन्थका अंग्रेजी तथा हिन्दी भाषाओं में अनुवाद हुआ है। श्री मोहनचन्द्र दलीचन्द देसाईने गुजराती भाषामें 'जैन साहित्य नो इतिहास' नामक ग्रन्थ लिखा जो जैन श्वेताम्बर कान्फरेन्स, बम्बईसे प्रकाशित है । आजकल कुछ जैन साहित्यके और भी इतिहास प्रकाशित हुए हैं । किन्तु इन सभी ग्रन्थोंमें श्वेताम्बर जैन साहित्यको ही प्रधान रूपमें अपनाया गया है। अभी तक दिगम्बर जैन साहित्यका कोई क्रमबद्ध इतिहास नहीं था ।
पं० कैलाशचन्द्रजीने लिखा है, "दिगम्बर जैन समाजमें सर्वप्रथम इस विषयकी ओर पं० नाथूराम प्रेमी तथा पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारका ध्यान गया । इन दोनों आदरणीय व्यक्तियोंने अपने पुरुषार्थ और लगन के बलपर अनेक जैनाचार्यो और जैन ग्रन्थोंके इतिवृत्तोंको खोजकर जनताके सामने रखा। आज के जैन विद्वानोंमेंसे यदि किन्हींको इतिहासके प्रति अभिरुचि है तो, उसका श्रेय इन्हीं दोनों विद्वानोंको है । कमसे कम मेरी अभिरुचि तो इन्हींके लेखोंसे प्रभावित होकर इस विषयकी ओर आकृष्ट हुई । "9
१. पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री जैन साहित्यका इतिहास - पूर्व पीठिका, लेखक के दो शब्द, पृष्ठ १५ ।
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