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में प्रविष्ट कराकर घर लौटने लगे, तो मेरे धैर्यने जवाब दे दिया। इसके बाद क्या हुआ, कैसे मैं विद्यालयमें रह गया, इसका विवरण अन्यत्र प्रकाशित हुआ है । उसकी पुनरावृत्ति मैं नहीं करना चाहता ।
स्याद्वाद महाविद्यालयमें मैंने छह वर्ष तक अध्ययन किया । उस समय छात्र बड़ी लगनसे पठनपाठन करते थे । बड़े छात्र छोटे छात्रोंको पढ़ाते थे और बड़े छात्रोंमें यह प्रतिस्पर्धा रहती थी कि किसके पास अधिक छात्र पढ़ने जाते हैं। समय विभाग नहीं था। अतः छात्र पहलेसे ही कक्षामें जमकर बैठ जाते थे कि पहले हम पढ़ेंगे । आपसमें लड़ाई-झगड़ा तक हो जाता था। रात्रिमें पढ़नेके लिए विद्यालयकी ओरसे देसी तेल मिलता था । अतः रात्रिमें अधिक समय तक पढ़नेके लिए छात्र एक-दूसरंका तेल भी चुरा लेते थे। अनेक छात्र जल्दी सो जाते थे और दूसरोंके सो जानेपर जागकर पढ़ते थे । रातभर किसी न किसीका दीपक जलता था। मुझे भी प्रारम्भसे ही पढ़ने में आनन्द आने लगा था। अतः मैं भी रातके १२ बजे जागकर पढ़ने लगा। उस समय विद्यालयके संस्थापक बाबा भागीरथजी वर्णी विद्यालयमें ही रहते थे । उन्होंने एक दिन मुझे बुलाकर कहा, "हम तुम्हें नहीं रखेंगे, तुम्हारे घर भेज देंगे।" मैं काँप उठा कि क्या कसूर हुआ। तब बोले-इस तरह पढ़ोगे, तो बीमार पड़ जाओगे । अभी तुम बालक हो । यह सुनकर मुझे शान्ति मिली। यह उस समयकी पठन-पाठनकी स्थिति थी। पंडित जीवन्धरजी, पं० चैनसुखदासजी, पं० रमानाथजी, पं० दयाचन्द्रजी, पं० दरबारीलालजी (सत्यभक्त), पं० कवरलालजी, ये उस समयके बड़े विद्यार्थी थे। पं० तुलसीरामजी, पं० घनश्यामदासजी, पं० गोविन्दरायजी पढ़ते भी थे और अध्यापकी भी करते थे। पूज्य पं० गणेशप्रसादजी वर्णी भी आते रहते थे । ब्र० शीतलप्रसादजी भी अधिष्ठाताके रूपमें जब-तब आया करते थे और सब व्यवस्था देखते थे ।
सन् १९२० में महात्मा गांधीने असहयोग आन्दोलन चलाया। सन् २१ की वसन्तपंचमीको विद्यालयके समीप ही काशी विद्यापीठकी स्थापना हुई । पं० उमरावसिंहजी तब ब्र० ज्ञानानन्द होकर विद्यालयमें रहते थे। उन्होंने अहिंसा प्रचारिणी सभाकी स्थापना करके अहिंसा नामक साप्ताहिक पत्र प्रकाशित किया । मैं उसका प्रूफ देखता था। राष्ट्रीयताके प्रभावमें आकर विद्यालयके छात्रोंने भी सरकारी परीक्षाका बहिष्कार किया। उसी साल मैं भी न्यायतीर्थकी परीक्षा देनेवाला था। उसके त्यागके साथ ही मैं विद्यालय त्यागकर घर आ गया और मोरेनाके जैन सिद्धान्त विद्यालयमें जैन सिद्धान्तका अध्ययन करने चला गया। तबतक काशीके महाविद्यालयमें जैनधर्मके अध्ययनकी समुचित व्यवस्था नहीं थी। साहित्य, व्याकरण और जैनन्यायका पठन-पाठन जोरसे चलता था ।
___ उस समय गुरुवर्य गोपालदासजीके द्वारा स्थापित मोरेना विद्यालय की समाजमें बड़ी प्रतिष्ठा थी। गुरुजीके प्रधान शिष्य पं० माणिक चन्द्रजी न्यायाचार्य, पं० वंशीधरजी न्यायालंकार और पं० देवकीनन्दनजी सिद्धान्तशास्त्री वहाँके अध्यापक थे । इन्हीं तीनोंके पास मैने गोम्मटसार, तत्त्वार्थराजवार्तिक, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, त्रिलोकसार और पंचाध्यायी का अध्ययन किया। पं. जगन्मोहनलालजी और पं० फूलचन्द्रजी मेरे सहाध्यायी थे।
दो वर्ष तक अध्ययन करनेके पश्चात् मेरी नियुक्ति स्याद्वाद महाविद्यालयमें धर्माध्यापकके पद पर हुई। एक वर्ष अध्यापन करनेके बाद मैं अस्वस्थ हो गया और मुझे विद्यालय छोड़ देना पड़ा। लगभग तीन वर्ष मैं कास रोगसे पीड़ित रहा। उस तीव्र असाताके उदयमें मेरी जिनभक्तिने ही मेरी रक्षा की । लौकिक चिकित्सा करनेके साथ ही मैं संसार रूपी महारोगके सिद्धहस्त चिकित्सक भगवान जिनेन्द्र देवको अपनी करुण गाथा प्रतिदिन सुनाता था और आश्वस्त होता था। जब मैं स्वस्थ हुआ तो मेरी धर्मात्मा माता मुझे मेरी पत्नीके साथ अहिच्छत्र, सोनागिर और श्रीमहावीरजीके वन्दन कराने ले गई। उसके पश्चात मैं अपने
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