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जीवन पठन-पाठन और सम्पादन-लेखनमें ही बीता। और इन पंक्तियोंके लेखनके समय भी वह क्रम चालू है, क्योंकि अभी मेरा पुरुषार्थ बना है और मुझसे खाली बैठा नहीं जाता है।
अपने उक्त जीवनके प्रकाशमें जब मैं अपने जीवनको एक पंडितके रूपमें आँकता हूँ तो मुझे अपने पंडित जीवनपर असन्तोष नहीं होता। यदि मैं पंडित न बनकर साधारण गृहस्थ ही रहा होता तो मेरे जीवनका उपयोग भी अपने पारिवारिक झंझटोंमें ही बीतता । न मैं आत्माको जानता, न परमात्माको जानता। समस्त जीवन "नोन तेल लकड़ी" की चिन्तामें ही बीत जाता । भगवान महावीर और उनकी वाणीके पठन-पाठनमें, आचार्य कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, पूज्यपाद, नेमिचन्द्र, अकलंकदेव, वीरसेन स्वामी, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र, अमृतचन्द्र आदि महान् आचार्यो के ग्रन्थरत्नोंका आलोडन करने में जो सुख मिला है, उसे मैं लेखनीसे लिखने में असमर्थ हूँ। खेद यही है कि मैंने अपने ज्ञानका उपयोग आत्महितमें नहीं किया । यह जानते हुए भी कि मैं द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मसे भिन्न एक स्वतन्त्र चेतन द्रव्य हूँ, मुझे संसार, शरीर और भोगोंसे आन्तरिक विराग नहीं होता और इस परसे मैं यह निष्कर्ष निकालता हूँ कि मेरी आत्मासे मिथ्यात्वका पर्दा हटा नहीं है, यद्यपि जीवनभर मैंने सच्चे देवशास्त्र गुरुकी ही श्रद्धा की है, उसीकी प्राप्तिके लिए मैं प्रयत्नशील हैं और आप सबका आशीर्वाद चाहता हूँ।
आज जैनसमाज एक व्यापारी समाज है और सब तीर्थकर, जिन्होंने जैनधर्मका प्रवर्तन किया, क्षत्रिय थे। धीरे-धीरे क्षत्रियोंसे जैनधर्म लुप्त हो गया। हिन्दू समाजकी तरह जैनसमाजमें ब्राह्मण जाति नहीं रही है। ब्राह्मण जातिका कार्य ही हिन्दू धर्मका संरक्षण और प्रचार है। जैनसमाजमें यह कार्य प्रायः संसारत्यागी मुनिगण और आचार्य करते थे। धीरे-धीरे उनका भी लोप होनेसे समाजके सामने कठिनाई उपस्थित हुई। तब संस्कृतके महाविद्यालय स्थापित करके विद्वानोंको परम्परा चालूकी गई। इस परम्पराने लगभर सात दशकों तक समाजमें धार्मिक शिक्षा और धर्मोपदेशका कार्य किया। संस्कृत और प्राकृतके ग्रन्थोंका भाषानुवाद किया और इस तरह जैनसाहित्यका भी संरक्षण और संवर्धन किया। किन्तु सामयिक परिस्थितिके बदलनेसे अब इस विद्वत्परम्पराका भी अन्त सन्निकट प्रतीत होता है। क्योंकि अब इस मार्गमें न तो आर्थिक ही आकर्षण रहा है और न लौकिक ही। मंहगाईकी अत्यधिकताके कारण एक परिवारके निर्वाहके लिये जितना अर्थ आवश्यक है उतना समाजसे मिलता नहीं है । अतः छात्र भी धार्मिक शिक्षाकी ओर ध्यान न देकर लौकिक शिक्षामें ही रुचि रखते हैं। किन्तु आजका पण्डित उनका सन्तोष नहीं कर सकता। इस स्थितिसे विषम समस्या पैदा हो रही है। जब तक जैनसमाज जैन विद्वानके पोषणके लिये आवश्यक आर्थिक व्यवस्था नहीं करेगा तब तक इस परम्पराका चालू रखना अशक्य होता जायेगा। अत समाजको इधर ध्यान देना चाहिये। और एक विद्वानको ५००) से कम वेतन नहीं देना चाहिये । यदि ऐसा हो जाये तो इस क्षेत्रमें आकर्षण बढ़ सकता है। उसके अभावमें जैनसमाजके सामने विषम समस्या पैदा हो जायेगी।
वस्तुतः जैनधर्म आत्मकल्याणके लिये है, जीविकाके लिये नहीं है। किन्तु गृहस्थाश्रममें रहनेवालेका जीवन निर्वाह तो आत्मकल्याणसे हो नहीं सकता। अतः उसे जीवन निर्वाहके लिये धनकी आवश्यकता है। आजीविकाके अन्य साधन अपनानेसे रुचि उधर ही लग जाती है। अतः आर्मिक क्षेत्र में कार्य करनेवाले विद्वानों का उपयोग उसी ओर रहे, इसके लिये उन्हें जीविकाकी ओरसे निराकूल करना ही चाहिये। साथ ही विद्वत्ताके योग्य-सन्मान भो उन्हें दिया जाता चाहिये। स्कूल कालिजोंमें अध्यापकोंकी जो स्थिति होती है वही स्थिति जैन विद्वानकी जब तक नहीं होगी तब तक यह समस्या सुलझ नहीं सकती।
मेरा यह अनुभव है कि विद्वानको सन्मान दो कारणोंसे मिल सकता है। एक निरीहवृत्ति और दूसरे विद्वत्ता । निरीहवत्ति तब तक संभव नहीं है जब तक जीवन निर्वाहके योग्य आजीविका न हो । और उसके
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