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होकर आपके स्पष्ट एवं अगाध सैद्धान्तिक और व्यावहारिक ज्ञानयुक्त विद्वत्तापूर्ण वक्तव्योंको सुनते अघाते नहीं । आपकी भाषण शैली विद्वत्तापूर्ण एवं विशिष्ट है । व्यावहारिक पुट देकर गूढ़से गूढ़ प्रकरणका विश्लेषण भी वे इस प्रकार करते हैं कि जन-साधारणको भी वह सहज गम्य हो जाता है । जनसमाजके कदाचित् ही ऐसे विशाल स मेलन होते हैं जहाँ आप निमंत्रित न किये जाते हों । अनेक सार्वजनिक अवसरों पर जनसमाजने आपका हृदयसे सम्मान किया है । १९४६ में सिवनीकी जैनसमाज द्वारा आपको सिद्धान्तरत्नकी उपाधि तथा १९६३ में जैन सिद्धान्त भवन आराके हीरक जयन्ती महोत्सव पर सिद्धान्ताचार्यकी उपाधि से विभूषित किया । सरस्वतीके इस उपासकने लक्ष्मीके प्रति कभी भी मोह नहीं रखा। कहा जाए तो उसके प्रति विरक्त ही रहे हैं । आपने स्याद्वाद महाविद्यालयके सम्पूर्ण अध्यय कालमें केवल आवश्यक वेतन लेकर ही सम्मानपूर्ण जीवन व्यतीत किया है। साथ ही, उसमेंसे नहटौरके परिवार के प्रति आर्थिक उत्तरदायित्वका निर्वाह भी किया है । अनेक घनिष्ठ व्यक्ति आपकी किसी भी आर्थिक इच्छाकी पूर्ति करना अपना सौभाग्य मानते किन्तु पण्डितजी धनकी लालसाके प्रति सदैव निस्पृह ही रहे हैं । नहटौर आनेपर वहाँके व्यक्ति कभी आपसे विनोदमें पूछ लेते थे कि पण्डितजी, आपका जैसा यश है, उससे आप अच्छा आरामका जीवन व्यतीत करनेका प्रयास क्यों नहीं करते, तब मुस्कराहट भरे चेहरेसे पण्डितजीका उत्तर हुआ करता था, "काहेके लिए।"
पण्डितजी जैसा सन्तोषी व्यक्ति मैंने अपने सार्वजनिक जीवनमें अभी तक नहीं पाया है । साधारण भोजन मिल जाये, बस यह पर्याप्त है । आर्थिक स्थितिके ही प्रति नहीं, विषम पारिवारिक स्थितिमें भी पण्डितजी पूर्ण सन्तोषी रहे हैं । पत्नी बसन्ती बाईके दीर्घकालसे अर्द्ध-विक्षिप्त होनेपर भी पण्डितजीके निजी जीवनमें दुःख अथवा विषाद कभी नहीं आया है । आपके एकमात्र सुपुत्र श्री सुपार्श्व जैन, हैवी इन्जीनियरिंग कारपोरेशन राँचीमें अच्छे बड़े पदपर नियुक्त हैं, किन्तु आपका मन, धर्म एवं विद्या केन्द्र, वाराणसी में ही लगता है । परम सन्तोषी वृत्तिसे आपका जीवन जिनवाणीको समृद्ध करने तथा अधिकसे अधिक विद्वान् उत्पन्न करनेके लिए अर्पित रहा है । आपके अनेक शिष्य विश्वविद्यालयों अथवा महाविद्यालयों में प्राचार्य अथवा अध्यापक पदों पर कार्य कर रहे हैं । मेरे मनमें एक कसक अभी भी रह-रहकर उठ जाती है कि पण्डितजीके शिष्य के रूपमें संस्कृत में जैनधर्मका अध्ययन किया होता तो मेरा जीवन भी धन्य हो जाता ।
जैसा देखा, जैसा सुना
श्रीकान्त गोयलीय, डालमियानगर
जैन जागरण के अग्रदूतके लेखक श्रीगोयलीयजीके शब्दों में, 'बीसवीं शताब्दी रूपी वधूका डोला अभी आया भी नहीं था कि उसके स्वागत समारोहके लिये समूचे भारतमें इस छोरसे उस छोर तक उत्साहकी लहर दौड़ गयी । जनता में सेवा, तप, त्याग, बलिदानके भाव अंकुरित हो उठे । वह अपने साथ राजनैतिक, धार्मिक और सामाजिक चेतना दहेज स्वरूप लायी जैन समाजमें भी होड सी मच गयी । राजा लक्ष्मणदास आदि महासभाकी स्थापना कर ही चुके थे । पण्डित गोपालदासजी बरैया भी मुरैनामे आसन मारकर बैठ गये और न्यायाचार्य गणेशप्रसादजी व बाबा भागीरथजी वर्णी बनारस में धूनी रमा बैठे। इनके द्वारा स्थापित स्याद्वाद विद्यालय में पं० कैलाशचन्द्रजीको विद्यार्थी, स्नातक एवं प्राचार्य होनेका गौरव प्राप्त है। जिस
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