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वर्गोंके कोपभाजन बने हुए हैं । लेकिन पण्डितजी सिद्धान्तोंकी संरक्षा एवं व्याख्याकी तुलनामें कुछ व्यक्तियोंकी उपेक्षाओं या प्रहारोंको सहना अधिक पसन्द करते हैं ।
उन्होंने अपने सम्पादकीय लेखोंमें समय-समयपर आई अनेक सामाजिक समस्याओंपर अपने विचार व्यक्त किये हैं। उन्होंने मुनि चन्द्रसागरजी, अभिनन्दनसागरजी, पुस्तक विक्रेता तथा शिथिलाचारी
गियोंकी प्रवृत्तियोंको आगम विरुद्ध बताकर आर्ष मुनिधर्मके पालनका पक्ष लिया है। मुनियों द्वारा पदवी या उपाधिग्रहणकी परम्पराको भी वे उचित नहीं मानते। अपनी इन विचारधाराओं के कारण समाजके कुछ वर्गमें उनके प्रति जो रोष है, उसका अनुभव लेखकको भी अनेक स्थानोंपर हुआ है। समयसमयपर पण्डितजीने सामयिक समस्याओंपर भी अपनी चिन्ता व्यक्त की। शिखरजीके जल प्रदूषण, तीर्थक्षेत्रोंके झगड़े, दहेज प्रथा, जबलपुर काण्ड, दशलक्षण और कषाय, 'सरिता और ब्लिट्स' में जैन धर्म और समाजसे सम्बन्धित प्रकाशित सामग्री और ऐसी ही अन्य समस्यायें उनके प्रखर विचारोंकी अभिव्यक्तिके माध्यम बनी हैं। वे विद्वानोंके संगठन, दि० जैन संघ, 'जैन लिखाओ' आन्दोलन, महिलाओंके स्वावलम्बन, मूर्तिपूजन, शाकाहार, दिवाभोजन, गजरथके समान सामाजिक और धार्मिक उत्सव, कारंजा गुरुकुल एवं जैन सिद्धान्त भवन जैसी संस्थाओं तथा आचार्य तुलसीके समाज सुधारक आन्दोलनके पक्षधर हैं।
वर्तमान स्थितिकी समीक्षा करते हुए उनकी मान्यता है कि जैनोंसे जैनधर्म छूटता जा रहा है। उन्हें हवाका रुख एवं समयको पहचाननेका संकेत पण्डितजीने कई बार दिया है । वे जैन धर्म और संस्कृतिके प्रचारकी आवश्यकता अनुभव करते हैं और इस प्रयत्नमें सभी प्रकारसे सहयोग करते हैं। वे वर्तमान मुमुक्षओं तथा अ-मुमुक्षुओंकी स्थितिसे पर्याप्ततः चिन्तित हैं और उन्होंने दोनोंको ही संयम बरतनेका तथा आगमोंको सही रूपमें लेनेका सुझाव दिया है। उनकी मान्यता है कि समाजमें पैसोंकी वर्षा होती है पर उनका समुचित उपयोग होना चाहिए । पण्डितजी जैन धर्मको स्वतन्त्र मानते हैं तथा भारतके सभी सम्प्रदायोंके बीच सौमनस्य एवं समन्वयका विचार प्रस्तुत करते हैं। वे समाजको शुद्ध, दृष्टिको निर्मल तथा वादविवादहीन बनानेका आग्रह करते हैं।
पण्डितजी यह मानते है वीतरागता ही सच्चा धर्म है और जीवनका लक्ष्य है । इसे प्राप्त करनेके लिए सम्यक्-दर्शन और सम्यक् -चरित्र दोनों आवश्यक हैं। व्यवहारमार्गसे ही निश्चयमार्गकी दिशा मिलती है । इन विचारोंको पुष्ट करनेके लिए उन्होंने समय-समयपर उत्पन्न मतवादोंकी समीक्षा की है। भावलिंगकी प्रमुखताको स्वीकार करते हुए भी वे द्रलिंगकी पूर्ण उपेक्षाके पक्षधर नहीं हैं। उसीके अनुरूप जहाँ एक
ओर वे मूलशंकर देसाईकी टीकाकी आलोचना करते हैं, वहीं दूसरी ओर वे कानजी स्वामीके कट्टर विरोधकी भर्त्सना भी करते हैं। उनका मत है कि धर्म और विज्ञानके बीच तथाकथित रूपसे दृष्टिगोचरभेदक रेखाकी विधिवत् विवेचनाके लिए एक ज्ञान-विज्ञान अकादमी होनी चाहिए । वे शास्त्र सभाओंकी उपयोगिता स्वीकार करते हैं और सिद्धान्त ग्रन्थोंके अध्ययनका अधिकार सभी जिज्ञासुओंके लिए मानते हैं । धार्मिक दृष्टिसे वे नारीको विषकी बेल ही मानते हैं, पर उसकी प्रगतिके लिए पर्याप्त उत्सुक प्रतीत होते हैं। उन्होंने आचार्य पद, दिगम्बरत्व, बन्ध और मोक्षका उपाय, भूतार्थ और अभूतार्थ, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि, आचार्योंकी प्रामाणिकता, पठनीयशास्त्र, नियतिवाद और सर्वज्ञता आदिके समान वर्तमानमें अनेक विवादग्रस्त समस्याओंपर अपनी तीक्ष्ण और तर्कसंगत लेखनी चलाई और अपने विद्वदवर्गको प्रभावित किया है।
"जैनसन्देश" का प्रारम्भ भारतीय स्वातन्त्र्यके आन्दोलनके युगमें हआ था। स्वतन्त्रता एक मौलिक राष्ट्रीय समस्या थी जिससे प्रत्येक भारतवासी मन, वचन व कार्यसे आन्दोलित रहा है। "जैनसन्देश" इससे अछूता कैसे रह सकता था? उसने गांधीजीके अहिंसात्मक आन्दोलनके राष्ट्रीय प्रयोगका प्रचण्ड
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