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मौलिक लेखक और अनुवादक-जैन शिक्षा एवं साहित्यमें पण्डितजीकी देन अपूर्व है । पं० नाथूरामजी प्रेमीकी प्रेरणासे आप साहित्य सृजनकी और प्रवृत्त हुये। स्व० पण्डित महेन्द्रकुमार न्यायाचार्यके साथ न्यायकुमुदचन्द्रका सम्पादन किया और उसकी विस्तृत भूमिका लिखी। पं० फूलचन्द्रजीके साथ भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघसे प्रकाशित जयधवलाका लगभग १३ खण्डोंमें आपने सम्पादन किया। सन् १९४८ में उज्जैनके एक प्रसिद्ध विद्याप्रेमी स्व० से० लालचन्द्र सेठीने जैन धर्मपर सर्वोत्तम पुस्तकके लिये १००० रुपयेका पुरस्कार घोषित किया था। जैन धर्मकी विशेषताओंको समाहित करते हुए आपने जैनधर्म नामक पुस्तकको लिखा और वह पुरस्कार आपको ही मिला । जैन साहित्य जगत्में पण्डितजीका नाम वास्तव में इस पुस्तक द्वारा ही अमर हआ। यह पुस्तक वाराणसी, सागर आदि विश्वविद्यालयों में पाठ्य पुस्तकके रूपमें मान्य है । इनके अतिरिक्त जैन साहित्यका इतिहास व उसकी पूर्वपीठिका (ग्रन्थ), जैन न्याय, तत्त्वार्थ सूत्रकी टीका, दक्षिण भारतमें जैनधर्म, अनागार धर्मामृत, सागार धर्मामृत, गोम्मटसार जीवकांड और कर्मकाण्ड, भगवती आराधना, चरणानुयोग प्रवेशिका, नमस्कार महामंत्र, भगवान ऋषभदेव, सोमदेव उपासकाध्ययन आदि आपके द्वारा लिखित उच्चकोटिके ग्रन्थोंमें आपका गहन अध्ययन एवं विशद पाण्डित्य पूर्णरूपेण परिलक्षित है । 'भगवान् महावीरका अचेलक धर्म' भी आपकी अमूल्य रचना है।
पत्रकार और सम्पादक-जैन पत्रकारिताके क्षेत्रमें भी पंडितजीकी सेवायें बहुमूल्य हैं । भारतवर्षीय दि० जैन सघ, मथुराके द्वारा आपकी पत्रकारिता मुखरित हुई। इस संस्थाके लिये पण्डितजीने अनथक कार्य किया है और अभीभी इससे बेहद लगाव है । इसके आप कर्णधार हैं और प्रकाशन विभागके मंत्री हैं। संघने सर्वप्रथम जैनदर्शन पत्र प्रकाशित किया । सन् १९३९ में जैनसन्देशका प्रकाशन आरम्भ करने पर आप उसके सम्पादक बने। इस पत्रके सम्पादकीय वक्तव्योंके रूपमें आपके सैकड़ों लेख प्रकाशित हुए हैं। पत्रकारिताके क्षेत्रमें पण्डितजीने कभी अपने हृदयकी आवाजके विरुद्ध नहीं लिखा। जाँचकर, परखकर, विचार मन्थन द्वारा जो आपको उचित लगा, निर्भीक भावसे उसीको लिखा, प्रतिपादित किया। इसी कारण कभी-कभी पण्डितजी आलोचनाके शिकार रहे हैं, किन्तु उससे वह किंचित भी अपने स्वतंत्र लेखनके प्रति प्रभावित नहीं
पण्डितजीकी विशेषतायें-वाल्यावस्था से अब तक पण्डितजीको सुननेका मुझे अनेकों बार अवसर मिला है । अनेक अवसरोंपर निकट बैठकर उनके अन्तरंगको छूनेका भी अवसर मिला है । किन्तु पाया है कि उनके विचारोंमें पूर्ण स्वतंत्रता है-पण्डितजी पूर्णरूपेण परम्परावादी नहीं है, किन्तु वे समयकी मांगके अनुसार धर्ममूल्योंमें अथवा सिद्धान्तोंके परिवर्तनके बिल्कुल हामी नहीं हैं। वह मानते हैं कि निःसन्देह महावीर द्वारा प्रतिपादित धर्म अवश्य ही कठोर है किन्तु जैन धर्मके मूल्योंको मूलरूपसे जीवित रखनेके लिए उसको तो वैसे ही स्वीकारना आवश्यक होगा।
पण्डितजी अधिक संस्थाओंमें व्यस्त होकर अपना अमूल्य समय खोनेके पक्षमें नही हैं। फिर भी, वे कुछ महत्त्वपूर्ण संस्थाओंसे संबंधित है । भारतवर्षीय दि० जैन विद्वत् परिषद्की स्थापनामें, जो वीर शासनमहोत्सवके समय १९४४ में स्थापित हई थी, आपका मुख्य हाथ रहा है और आप उसके संरक्षक हैं। भारतीय ज्ञानपीठकी परामर्श समितिके आप सदस्य तथा मतिदेवी जैन ग्रन्थमाला एवं जीवराज जैन ग्रन्थमाला, शोलापुरके आप सम्पादक है ।
सुन्दर व्यक्तित्वने पण्डितजीके प्रभावशाली वक्तत्वको चार चाँद लगाये हैं। वाणीकी मिठास हृदयमें गहराई तक उतरती जाती है। शास्त्र-प्रवचन हो अथवा विशाल सार्वजनिक आयोजन, श्रोतागण विभोर
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