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पर उदासी एवं आँखोंमें आँसू अन्ततः सहोदरसे भी सहन न हुए और वह उन्हें घर वापिस ले चलनेके लिये सहमत हो गये । पण्डितजीकी प्रसन्नताका पारावार न रहा । लेकिन समस्या यह थी कि उस कठोर अनुशासन एवं देख-रेखमें से निकलकर बिना किसीको पता चले स्टेशन तक कैसे पहुंचा जाये। दोनों भाई विद्यालयके अधिकारियों तथा विद्यार्थियोंकी आँखोंसे बचकर वहाँसे निकल भागनेका उपाय सोचने लगे। बहत देर तक माथापच्ची करनेके पश्चात विद्यालयकी संध्याकी प्रार्थनाके पश्चात भाग निकलनेका कार्यक्रम निश्चित किया गया । प्रार्थनाके समय स्वयं पं० उमरावसिंहजीकी उपस्थितिमें छात्रोंकी हाजिरी ली जाती थी। पण्डितजीको आशा थी कि प्रार्थनामें उपस्थित रहनेके कारण अधिकारी उनकी ओरसे निश्चिन्त हो जायेंगे और वह बेखटके वहाँसे निकल सकेंगे । योजनानुसार संध्या आनेपर प्रार्थनाके पश्चात् भाई श्री शिखरचन्द्र अपना बोरिया-बन्धना उठाकर विद्यालयसे रवाना हुए। आँख बचाकर उछलते हुए हृदयसे बालक कैलाशचन्द्र भी एक-दो-तीन हो गया । किन्तु संकटको कहाँ टलना था। विद्यालयके फाटकसे कुछ ही पग आगे जाने पर एक कर्मचारीसे भेंट हो गयी। दोनोंके चेहरोंपर बदहवासी देखकर उसे कुछ शक हुआ और उसने घूरकर पूछा, "कहाँ जा रहे हो। बालक कैलाशचन्द्र इसपर कुछ सकपकाया, किन्तु साहस पूर्वक उत्तर दिया, "भाईको पहुँचाने जा रहे हैं।" सन्तुष्ट होकर कर्मचारी आगे बढ़ गया । एक मोर्चा तो फतह कर लिया गया था । एक तेज चलनेवाला इक्का लेकर स्टेशन पहुँच गये किन्तु पता चला कि रात्रिमें कोई भी गाड़ी घरकी ओर नहीं जाती। विवश होकर मुसाफिरखाने में बिस्तर बिछाकर भाईके साथ लेटना पड़ा। भाई तो शीघ्र ही गहरी नींदमें मशगूल हो गये किन्तु पण्डितजीको नींद भली प्रकार न आई। पुकारनेका भारी शब्द सुनकर दोनोंकी ही आँख खुल गयी और सामने देखकर दोनोंको ही हैरानी हो गयी। पं० उमरावसिंहजी दो यमदूतों सहित सशरीर पकड़नेके लिए तैयार खड़े थे। झटसे उन्होंने पण्डितजीको उठाया और इक्केमें सवार होकर विद्यालय ले चले । भाई शिखरचन्द्र विवशतासे कुछ न कर सके और अश्रुपूर्ण नेत्रोंसे विदा किया। लगभग १५ दिन तक पण्डितजीका मन खिन्न रहा। इस बीच में पं० उमरावसिंह पत्रिकाओंके चित्रों द्वारा उनका मनोरंजन करनेका प्रयत्न करते रहे।
पण्डितजी मानते हैं कि यदि पं० उमरावसिंह उस समय उनकी ओरसे उदासीन हो जाते तो उनके प्रारम्भिक जीवनकी यह घटना उनके भविष्यके जीवनपर गहरा पर्दा डाल लेती। पं० उमरावसिंहकी भांति शिक्षा संस्थाओंके कितने प्रबन्धक अथवा अध्यापक इस प्रकार अपने कर्तव्यका पालन करते हैं ?
तरुणावस्थामें पण्डितजी राष्ट्रीय भावनाओंसे प्रभावित हुए बिना न रह सके। सन् १९२१ में आपने कलकत्ताकी न्यायतीर्थकी सरकारी परीक्षाका बहिष्कार महात्मा गान्धी द्वारा चलाये गये असहयोग आन्दोलनके कारण किया । उस समय विद्याध्ययन छोड़कर कुछ समय नहटौर ही रहे । किन्तु वहाँ मन न लगनेपर पुनः सन् १९२१ में मोरेनामें जैनसिद्धान्त विद्यालयमें, जिनका कालान्तरमें गोपालदास जैन विद्यालयके रूपमें नाम पड़ा, अध्ययनके लिए आये। वहाँ १९२३ तक रहे और वहींसे शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण की । सन् १९२३में स्याद्वाद विद्यालयमें आप अध्यापक नियुक्त होकर आये। आरम्भमें वहाँ एक वर्ष ही कार्य किया था कि अस्वस्थ होनेपर महाविद्यालयसे नहटौर वापिस चले गये। दिसम्बर १९२७ में अनुरोधपर आप पुनः स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसीमें आये । १९३१ में यहाँसे बंगाल संस्कृत एसोसियेशनकी न्यायतीर्थ परीक्षा प्रथम श्रेणीमें उत्तीर्ण की। ४ दिसम्बर १९७२ में अवकाश प्राप्त करनेके समय तक आप वहाँके सफल एवं यशस्वी प्रधानाचार्य रहे ।
तत्कालीन युगकी कुछ बातें-मेरे प्रश्न करनेपर कि उस समय विद्यार्थियोंमें पढ़नेके प्रति कितनी लगन थी, पण्डितजीने बतलाया कि स्याद्वाद महाविद्यालयमें विद्यार्थी एक-दूसरेको बिना विदित हुए पढ़ते थे ।
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