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जीवनकी एक झलक : पण्डित कैलाशचन्द्रजी
___सतीशकुमार जैन, असिस्टैंट कमिश्नर (वन), भारत सरकार, नई दिल्ली अपनोंके विषयमें अधिक जानते हुए भी अधिक नहीं लिखा जा सकता। यही स्थिति मेरी भी है। जिन्हें सदैव जीवनमें सर्वाधिक सम्मान दिया है, उनके विषयमें क्या लिखा जाये, क्या छोड़ा जाये, यही ऊहापोहकी स्थिति बनी रहती है ।
जन्म और मातापिता-छोटेसे कस्बेमें साधारण परिवार में लाला मुसद्दीलाल जैनके कनिष्ठ पुत्रके रूपमें जन्मे बालक कैलाशचन्द्र के विषयमें किसको यह पूर्वाभास हो सकता था कि भविष्यमें यह बालक देशके अग्रणी विद्वानोंमें भी आदरपूर्ण स्थान प्राप्त करेगा।
पण्डितजीका जन्म उत्तरप्रदेशके आमों और खण्डसारीके लिये पर्याप्त प्रसिद्ध कस्बे नहटौर (जिलाबिजनौर) में कार्तिक शुक्ला द्वादसी, संवत १९६० (सन् १९०३) में हुआ। हम नहटौर वालोंको गर्व है कि सरलस्वभावी एवं जैनदर्शनके उदभट विद्वान सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्रजीका जन्म इसी मिट्टीमें हुआ है । पण्डितजी का समूचा परिवार सरल स्वभावके लिये सारे नहटौरमें प्रसिद्ध था। पिता श्री मुसद्दीलालजी, अत्यन्त हंसोड़ प्रकृतिके सरल स्वभावी तथा सन्तुष्ट व्यक्ति थे। पं० जीके ज्येष्ठ भ्राता स्व० श्री शिखरचन्द्रजी समाज-सेवा, भजनोंके गायन, पर्युषण पर्व पर प्रभातफेरीके संचालन तथा लतीफेबाजीके लिये प्रसिद्ध थे। उनके मकानसे संलग्न श्री दिगम्बर जैन मन्दिरके चबूतरे पर सायंकालको बैठकर बच्चे एवं वयस्क समान रूपसे उनकी रोचक वर्णन शैलीका आनन्द उठाते थे। पण्डितजीके मार्गदर्शनमें श्री शिखरचन्द्र जीका विशेष हाथ रहा ।
शिक्षा-दीक्षा और जीवन चरित्र-पण्डितजीकी आरम्भिक धार्मिक शिक्षा स्थानीय जैन पाठशालामें, जो मन्दिरजीके ठीक सामने थी, आरम्भ हुई। जैन समाजके ख्यातिप्राप्त धर्मप्रेमी रायबहादुर द्वारकाप्रसाद जैन, गेरिसन इन्जीनियर, जो सेवा निवृत्त होनेके पश्चात् नहटौर में ही अपने विशाल भवनमें रहने लगे थे, बालकोंकी धर्म एवं हिन्दी परीक्षा लिया करते थे। रायबहादुर साहब बालक कैलाशचन्द्रके जैन धर्म, हिन्दी प्रेम तथा सुन्दर व्यक्तित्वसे अधिक प्रभावित हुए और उन्हींके सुझाव पर श्री शिखरचन्द्रजी आपको स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसीमें प्रविष्ट करानेके लिये तैयार हो गये। सन् १९१५ की भाद्रपद मासकी कृष्ण चतुर्थी, आपके वहाँ प्रवेशका प्रथम दिन थी। उस समय पण्डितजीकी अवस्था १० वर्षकी थी और भाई शिखरचन्द्र जीकी १८ वर्ष । इस कारण उनके साथ वाराणसी जाने में पण्डितजीको घर पर कोई घबराहट नहीं हुई थी।
उस समय स्याद्वाद महाविद्यालयका प्रबन्ध पं० उमरावसिंहजीके हाथोंमें था, जो पण्डिज गोपालदासजी बरैयाके पाँच मुख्य शिष्योंमें से एक थे। उमरावसिंहजी वहाँ सन् १९१८ तक रहे, उसके पश्चात् उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर ब्र० ज्ञानानंद नाम धारण कर लिया था। पं० उमरावसिंहजीका अनुशासन कठोर था। नहटौरमें पक्षीके समान स्वच्छंद रहनेवाले बालक कैलाशचन्द्रका मन यहाँ तीन दिनमें ही उचाट हो गया। शिखरचन्द्रजी तब तक वहीं रुके हुए थे । पण्डितजीने उनसे नहटौर वापिस ले चलनेका प्रबल आग्रह किया। विद्यालयमें उन्हें तीन दिन तीन वर्षसे भी अधिक लम्बे लगे। घरके स्वच्छन्द वातावरण एवं परिवार वालोंकी अविकल स्मृतिने इन्हें विकल कर दिया। श्री शिखरचन्द्र के नहटौर जानेका नार पण्डितजीके मनमें गहरी उदासी छा जाती थी। वह पिंजरेमें बन्द पक्षीके समान छटपटाने लगे। उनके मुख
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