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बादको अम्बाला छावनीमें शास्त्रार्थ संघकी स्थापना हुई और उससे एक पाक्षिक पत्र जैनदर्शन प्रकाशित हुआ। मैं सहायक सम्पादक बनाया गया। तब मुझे लेख लिखनेका अभ्यास नहीं था। एक लेख लिखने में घंटों बीत जाते थे। बादको तो जब संघने साप्ताहिक पत्र जैनसन्देश प्रकाशित किया, मैं उसका सम्पादक बना और मझो उसके लिए प्रति सप्ताह सम्पादकीय लिखना पड़ा। इस तरह मैं लेखक बना ।
प्रारम्भसे ही मेरी यह नीति रही कि जो कुछ लिखा जाय, वह व्यक्तिगत राग-द्वषसे ऊपर उठकर लिखा जाय । फिर भी, अपनी कमजोरियोंके कारण मेरे लेखनमें कभी-कभी कटुता भी आ जाती थी। मरी नीति सदा माध्यम-मार्गी रही। मैं न तो प्रत्येक सूधारका विरोधी था और न समर्थक । मैंने जैन शास्त्रोंका निष्पक्ष रीतिसे जो अध्ययन किया था उससे मेरा एक दृष्टिकोण बन गया था-आगमके विपरीत लिखना नहीं और रूढिको मान्यता देना नहीं। अपने इसी दृष्टिकोणको सामने रखकर मैं सामाजिक विषयोंपर तथा धार्मिक चर्चाओंपर लिखता रहा हूँ। जैन जातियोंमें परस्पर विवाह सम्बन्धका मैं पक्षपाती हूँ। पं० आशाधरजीने सागार-धर्मामतमें लिखा है-“साधर्मीको ही कन्या देनी चाहिये जिससे उसके धार्मिक संस्कार नष्ट न हों।" अतः मझामें जातिकी अपेक्षा धर्मका ही पक्षपात विशेष रहा है। मैंने जातिवादको भी प्रथय नहीं दिया । जो जैन धर्मावलम्बी है, वह मेरा सजातीय है। यही मेरी श्रद्धा है। हाँ, खान-पानमें शुद्धताका पक्षपाती रहा हैं। किन्तु मनियोंके द्वारा आहारदान देनेवालेसे कराई जानेवाली शूद्रजल त्यागकी प्रतिज्ञाका मैं विरोधी हैं। मैं इसे शास्त्र-सम्मत नहीं मानता । पं० आशाधरजीने सत् शुद्रको आहारदान देनेका अधिकारी माना है। हरिजनोंके सम्बन्धमें भी मैं पं० आशाधरजीके मतका अनुयायी हूँ कि आचार-शुद्धि और शारीरिक शुद्धिके साथ शूद्र भी धर्मसाधनका यथायोग्य अधिकारी हो सकता है। आजके बदलते समयमें हमें परम्परागत रूढिसे चिपका न रहकर शास्त्रसम्मत परिवर्तनको अपनानेमें ही हित है, यह मेरी दृष्टि रही है। मैंने सन्देशके द्वारा वर्तमान मुनिमार्गमें बढ़ते शिथिलाचारका विरोध किया है । इससे मुनियोंके भक्त मुझे मुनि-विरोधी मान सकते हैं। किन्तु कोई जैन धर्मानुयायी मुनिमार्गका विरोधी नहीं हो सकता। मुनिमार्ग आत्मकल्याणके लिए है। उसे अपनाकर मुनिमार्ग विरोधी क्रियाएँ करनेसे आत्मकल्याण तो सम्भव नहीं है, मुनिमार्गपर भी दूषण आता है।
लगभग तीन दशकोंसे सोनगढ़ के विरुद्ध प्रचार चला है। मेरी दष्टिसे उस प्रचारमें साधर्मीवात्सल्य का लेश भी नहीं है । जिस व्यक्तिने स्वतः प्रेरित होकर दि० जैनधर्मको स्वीकार किया, मूर्तिपूजा विरोधी सम्प्रदायका गुरु होते हुए सौराष्ट्र में दिगम्बर जैन मन्दिरोंकी श्रृंखला खड़ी कर दी, जिस सौराष्ट्र में दिगम्बर जैन नाममात्रको थे, उसे दिगम्बर जैनोंका गढ़ बना दिया, उस व्यक्तिके प्रति विरोधियोंके चित्त में थोड़ा-सा आदर-भाव न होना क्या धर्मका परिचायक है ? ऐसे व्यक्तिका जिन्होंने बहिष्कार किया, जिनवाणीकी अवमानना की, उन्हें क्या कहा जाये, समझमें नहीं आता ? यह सब दिगम्बर जैनधर्मके लिए महान् हानिकारक है। अनुचित बातोंका विरोध होना चाहिये किन्तु उन्हें दिगम्बर जैन न माननेमें क्या तुक है ? आज समयसारकी चर्चा सर्वत्र है, निमित्त-उपादानको साधारण-जन भी जानने लगे हैं। जो सोनगढ़ विरोधी है, वे आज भी धर्मज्ञानसे शुन्य जैसे हैं। उनमें शास्त्रीय चर्चाके प्रति रुचि नहीं है, क्योंकि वे उनसे अनजान हैं।
यह सब मैं अपने अभिप्रायानुसार लिख रहा हूँ क्योंकि मुझे अपना अन्तरंग परिचय भी तो देना है। जैनधर्म एक सत्यनिष्ठ धर्म है। उसका सच्चा अनुयायी किसीके भी साथ अन्याय नहीं कर सकता । न तो वह सत्यका अपलाप कर सकता है और न सत्यका आरोपण कर सकता है। किन्तु खेद है कि आज धर्म में भी राजनीति घुस गई है और राजनैतिक पार्टियोंकी दलबन्दीकी तरह धर्ममें भी दलबन्दी चल पड़ी
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