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हमारे मतका खंडन भी आज तक किसीने नहीं किया। मुख्तार सा० एवं पंडितजी प्रभति कोई-कोई विद्वान इस मतभेदका उल्लेख अवश्य करते रहे । किन्तु उक्त घटनाके लगभग दो दशक बाद जब पंडितजीकी दृष्टिमें कुछ ऐसे संदर्भ आये जिनसे हमारा मत समर्थित होता था, तो शोधांक में प्रकाशित अपने एक लेखमें उन्होंने हमारे मतकी स्पष्ट पुष्टि कर दी। उस लेखसे यह भी विदित हुआ कि स्वयं प्रो० हीरालालजीने भी यह स्वीकार किया था कि हरिवंशकार जिनसेनसूरि ( ७८३ ई० ) के सन्मुख धवलाटीका अवश्य रही थी। हमने धवलाका रचनाकाल ७८१ ई० सिद्ध किया था, जबकि प्रोफेसर सा० ने ८१६ ई० निर्णय किया था। पंडितजी के अनाग्रही शोधक दृष्टिके ऐसे अनेक उदाहरण हैं।
हमारे साथ पंडितजीका निकट परिचय एवं घनिष्ठ सम्पर्क है। उनके दर्जनों प्रवचन और भाषण सुने हैं, जैन संदेशके उनके अग्रलेखोंको साधिक तीस वर्षसे बराबर पढ़ते आ रहे हैं, उनके अन्यत्र प्रकाशित लेखों और पस्तकाकार कृतियोंको भी प्रायः सभीको पढ़ा है। घण्टों उनसे चर्चा-वार्ता की है, देखा-समझा है, उनसे बहुत कुछ सीखा है, उनसे हमें सदैव बड़े भाईका स्नेह मिला है। उनके मधुर व्यवहार, सरल हृदय तथा स्पष्टवादितासे उनका विरोध करनेवाले भी इन्कार नहीं करते। यों स्पष्टवादी स्वतन्त्रता समालोचकका विरोध करनेवाले तो होते ही रहते हैं उनके भी हैं । परन्तु, विरोधसे घबराकर अपनी बात कहनेसे भी पंडितजी कभी नहीं चूकते।
अपने प्रकाण्ड वैदुष्य, मधुर व्यवहार, निर्लोभ और सरलताके कारण पंडितजी न केवल जैन समाजमें ही पर्याप्त लोकप्रिय रहे हैं, वरन् जैनेतर विद्वत्समाजमें भी समादत रहे हैं। जैन समाजके लिए उनमें एक तड़प है, विशेषकर वर्तमान जैनोंके जीवनमें धर्मभावका जो हास होता जा रहा है और धर्मके नामपर जो विकृतियाँ उदयमें आ रही हैं उनसे वह क्षुब्ध हैं। उनके लेखोंमें वह क्षोभ बहुधा तीखा होकर उजागर होता है और अनेक पाठकोंको भी क्षुब्ध कर देता है-कुछको सुधारकी प्रेरणा देकर तो कुछको विरोधकी । वैसे भी, पंडितजीके सच्चे भक्त शायद थोड़े ही हैं, क्योंकि पंडितजी न कुटनीतिज्ञ हैं और न चाटुकार, और शायद व्यवहारचतुर भी कुछ कम हैं । इसलिये जिसके साथ कुछ उपकार भी करते हैं, वह भी उनसे संतुष्ट नहीं होता। उनकी बाह्य वेषभूषाकी सादगी और अन्तरकी सरलता-'जहा अन्तो तहा बाहि, जहा बाहि तहा अन्तो' ने उन्हें दुनियादारीके लिए कुछ निरर्थक-सा बना दिया। सन्तोषी प्रकृति और संयमी जीवन होते हए भी व्यावहारिक उदारताकी कमीने उनके प्रशंसकोंको संख्या सीमित रखी है। गुण होते हैं तो दोष भी कुछ होते हैं। पंडितजीमें भी दोनों हैं-पूर्ण निर्दोष तो कोई होता ही नहीं, सिवाय वीतराग भगवान् के। जो गुणग्राही हैं, वे दोषों पर दृष्टि नहीं डालते, गुणोंको ही ग्रहण करते हैं, और उन्हींके आधारसे व्यक्ति विशेषका मूल्यांकन करते हैं। पंडितजीके जो दोष या त्रुटियाँ है वे वैयक्तिक है, किन्तु उनके जो गुण हैं, जैन विद्या, साहित्य, संस्कृति और समाजके लिए उनकी जो अमूल्य सेवायें और देनें हैं, उन्होंने वर्तमान युगीन जैन पंडितों, विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, शिक्षकों, प्रवक्ताओं और समाज उदबोधकोंमें उन्हें जो अग्रस्थान प्रदान किया है, वह स्थायी महत्त्वका है।
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