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किसी भी रूपमें कोई आकांक्षायें प्रगट नहीं की है जबकि अन्य विद्वानोंकी स्थिति इसके विपरीत है। ऐसे महाविद्वान् पर हमें गर्व है और आस्था है। पण्डितजीका एक आदर्श चारित्रिक जीवन है। सात्त्विक खानपान है और सादा पहनावा है। उनमें न अहंकारके दर्शन होते हैं और न भावनायें । वास्तवमें, वे उच्चकोटिके महान विद्वान है । मैं उनको जैन समाजकी एक अमूल्य विभति मानता हूँ। वर्तमानमें पण्डितजी जेसे विद्वानोंका उदगम होना संभव नहीं है। यह महाविद्वान चिरंजीवी बनकर इस महान वीतराग मार्गकी सेवा करते हए अपने आपको अमर बनायें।
लोकप्रिय सम्पादक
हीराचन्द बोहरा, कलकत्ता समाजले यशस्वी लेखक, उच्चकोटिके विद्वान् एवं लोकप्रिय सम्पादक पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीके द्वारा जैनधर्म, साहित्य व समाजके क्षेत्रमें जो उल्लेखनीय सेवायें हुई हैं, समाज उन्हें कभी विस्मरण नहीं कर सकता। उनकी बक्तत्व शैली, लेखन शैली एवं प्रगाढ़ विद्वत्ताकी छाप अगणित व्यक्तियों पर पडी है। शास्त्रीजीने अपना समूचा जीवन ही सेवा हेतु अर्पित किया है। विद्याके प्रचारके क्षेत्रके अतिरिक्त जैन सन्देशके सम्पादक के रूपमें उन्होंने जिस निर्भीक, सुलझी हुई विचारधाराका परिचय दिया एवं समाजको विवटनसे बचानेका सदा आह्वान किया, यह उनकी विशेषता है । शास्त्रीजी दीवायु हों, सदा नीरोग रहें और समाजको उनकी सेवाका लाभ मत प्राप्त होता रहे। यही श्री वीर प्रभुसे मेरी प्रार्थना है ।
आस्थाके प्रतीक
डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, नीमच संसारमें व्यवहारकी उज्ज्वलता लिये तरह-तरहके चटकीले रंगोंमें प्रकाशित होनेवाले विहगों, मराल-मालाओं और तदनुरूप अपने आपको व्यक्त करने वाले नर-नारियोंकी भी कमी नहीं है । शब्दोंको रट लेने वाले खगोंकी भाषामें अपने व्यक्तित्वका प्रदर्शन करने वाले विद्वानोंकी भी कमी नहीं दिखलाई पड़ती। इसी प्रकार चारि का दम्भ भरने वाले और अपनी श्रेष्ठताका ढिंढोरा पिटवाने वालोंकी भी कमी नहीं है। किन्तु उन सबमें अलगसे लक्षित होनेवाला भी एक मानवीय व्यक्तित्व है जो अपनी आस्थाके शिखर पर सदा स्थिर रहने वाला है, जिसे अपनी आस्थाका स्वाभिमान है और जो प्रत्येक परिस्थितिमें अपनी
ईको उजागर करने वाली आस्थाका प्रतीक है। ऐसे व्यक्तित्वका संघर्ष कम नहीं होता, किन्तु वह अडिग चट्टानकी भाँति झंझाओं, चक्रवातोंकी चिन्ता कब करता है? उसके व्यक्तित्वका निर्माण आस्थाके उन सूत्रोंसे होता है जो कभी मिटना नहीं जानते और जो सदा अपराजेय होते हैं।
जैन समाजकी विद्वन्मण्डलीमें प्रमुख रूपसे व्याख्यानवाचस्पति पं० देवकीनन्दनजी और पं० चैनसुखदासजीका बरबस स्मरण हो आता है, जिनकी प्रखरता सत्यके खरेपनमें चमकती हुई भासमान होती थी और जो आस्थाके पक्षधर थे। उनकी जैसी निर्भीकता, स्पष्टता और खरापन आज भी गुरुवर्यमें परिलक्षित होता है। समाज और देशमें चाहे जैसे विचारोंकी आँधी चलती हो, समय-समय पर झंझावातोंकी प्रबलता लक्षित होती हो; किन्तु उनके विचारोंमें सदा एकरसता है-समरसता है। वे
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