________________
अहिच्छत्र पार्श्वनाथ स्तोत्र ( अठारहवीं सदी ) के माध्यमसे जैन आचार्यों ने इसे सातवीं शताब्दीसे अठारहवीं सदी तक जीवित रखा है। वर्तमान में, यह स्थान रुहेलखण्डके बरेली जिलेकी आंवला तहसीलके अन्तर्गत रामनगर गांवके पास है। यह लखनऊ-सहारनपर रेलमार्गपर स्थित आंवला ग्रामसे छह मील दर है। यहाँ लगभग छह सौ वर्षोंसे चैत्र मासमें एक मेला लगता है। इसका उल्लेख विविधतीर्थ कल्पमें किया गया है । यह आज भी गरिमामय रीतिसे लगाया जाता है। इस नगरोंके इतिहासके लिये रुहेलखण्ड कुमायू जैन डायरेक्टरी ( सं० डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन, १९७० ) देखना चाहिए। इससे पता चलता है कि यह स्थान कभी एक महानगर था जिसे अतीतके दो हजार वर्षों में नौ-नौ बार बसाया और उजाड़ा गया।
इस क्षेत्रके बिजनौर जिलेके दो अन्य स्थान भी जैन संस्कृतिसे ऐतिहासिक रूपसे सम्बन्धित है । इस जिलेमें पारसनाथ किला नामक स्थान है जो नगीनाके पास बढ़ापुर गाँवसे तीन मील पूर्वमें प्राचीन बस्तीके खण्डहरोंके रूपमें आज उपलब्ध है । यहाँ एक प्राचीन दुर्गके भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं। ऐसा माना जाता है कि पारसनाथ किला भगवान्की तपोभूमि एवं देशनाभूमि रहा होगा। यह स्थान हस्तिनापुरसे अहिच्छत्रके मार्गमें पड़ता है। फलतः यह सम्भव है कि पार्श्वनाथ भीमाटवी पहुँचनेके पूर्व इस स्थान पर कुछ समय रहे हों। आज यह स्थान उपेक्षित दशामें अपने दिन बिता रहा है। इस स्थानकी व्यवस्थित पुरातात्विक शोधबीन अत्यन्त आवश्यक है। इतिहास-प्रेमी बन्धुओंको इस दिशामें प्रयत्नकर इस क्षेत्रके इतिहासपर प्रकाश डालना चाहिए।
__ कुछ समय पूर्व हुए अल्प पुरातात्त्विक गवेषणसे यहाँ अनेक जैन प्रतिमाएँ व पट्ट प्राप्त हुए हैं। इनमेंसे एक पट्रपर ब्राह्मी लिपि तथा प्राकृत भाषामें संवत १०६७ का उल्लेख है। इस संवतको यदि वीर निर्वाण संवत माना जाय. तो यह पट छठी सदीका प्रमाणित होता है। इससे यह निष्कर्ष कि यह किला क्षेत्र भी प्राचीन कालसे विख्यात है।
बिजनौर जिलेका दसरा महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थान मोरध्वज किला है जो आज नजीबाबाद कोटद्वारा मार्गपर छह भील उत्तरपूर्वमें एक प्राचीन दुर्गके भग्नावशेषके रूपमें विद्यमान है । कहते हैं कि इसका निर्माण ध्वजवंशी राजा मयूरध्वजने कराया था। इसके भीतर स्थित एक ऊँचे टीलेको शीगिरिके नामसे पुकारा जाता है। सम्भव है, यह श्रीगिरि या श्रीगहका अपभ्रंश हो और वहाँ एक उत्तङ्ग जिनालय रहा हो । यह शोधका विषय है क्योंकि किलेके खण्डहरोंसे अनेक प्राचीन कलावशेष तथा देवमूर्तियाँ प्राप्त हुए हैं। इसी जनपदमें महर्षि कण्वका आश्रम, शत्रुताल तीर्थ और अन्य स्थान हैं।
इसी प्रकार रुहेलखण्डके अन्य जिलोंमें भी अनेक प्राचीन स्थल पाये जाते हैं। इनकी सन्तोषजनक खोज आवश्यक है । लेकिन उपरोक्त विवरणसे यह स्पष्ट है कि वर्तमान रुहेलखण्डके विभिन्न जनपदोंमें जैन संस्कृतिका ऐतिहासिक कालसे ही घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। इस दृष्टिसे इस क्षेत्रका अतीत गौरवमय रहा है। यही कारण है कि वर्तमान कालमें भी इस क्षेत्रने इस संस्कृतिके उन्नायकोंको जन्म देकर अपनी प्राचीन गरिमाको बनाये रखा है ।
रुहेलखण्डकी जैन विभूतियाँ-अपनी प्राचीन गरिमाके अनुरूप रुहेलखण्डने उन्नीसवों-बीसवीं सदीमें ऐसी अनेक प्रतिभाएँ प्रदान की हैं जिन्होंने जैन समाज और संस्कृतिके साथ राष्ट्रका नाम भी प्रकाशित किया है। यह रुहेलखण्डका ही सौभाग्य है कि इस क्षेत्रमें बीसवीं सदीमें ऐसे धनपति और विद्यापति हुए हैं जिन्होंने एक-दसरेके सहयोगसे अनेक क्षेत्रोंमें महनीय कार्य किये हैं। इस क्षेत्रमें जन्म लेनेवाले जैन बन्धुओंने राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं औद्योगिक क्षेत्रमें
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org