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वीतरागताके प्रबल पक्षधर हैं। कोई कुछ भी कहे और कछ भी माने: वह बडे-से-बडा साध. त्यागी भी का जाता हो, पर जिनवाणीके सामने वे किसीके आगे सिर नहीं झका सकते। यह एक ऐसी विशेषता है जो किसी विरलेमें ही लक्षित होती है। मेरे गुरुवर्य ऐसे ही विरले हैं।
प्रभावक वक्तृता और प्रभावोत्पादक लेखन, साथ ही शास्त्रीय ग्रन्थोंका सम्पादन, अनुवाद आदिका कार्य सब एक साथ सफलतासे करने वाले बहत कम देखे जाते हैं । आपमें ये सभी विशेषताएं एक साथ पाई जाती हैं । लेखनमें भी स्पष्टता, निष्पक्षता और प्रामाणिकता आपके विशेष गुण हैं । एकके बाद एक कर अनेक पीढ़ियाँ बीतती जायेंगी, परन्तु आपके गुण सरस्वती-मन्दिरमें प्रवेश पाने वालोंके लिए, जैन आस्थाकी देहरी पर चढ़ने वालेके लिए, सदा दीपकके प्रकाशकी भांति स्पष्ट आलोक प्रदान करते रहेंगे । और इसीलिये युग-युगों तक आस्थाके प्रतीकको हम अपने स्मतिमन्दिरमें संजो कर रखेंगे-भावी पीढ़ीके पथ-प्रदर्शन व प्रेरणा-प्राप्ति हेतु।
सतत अभिनन्दनीय पंडितजी
डा० ज्योतिप्रसाद जन, लखनऊ 'पंडित' शब्द इधर कुछ विवादका विषय बन गया है और कई ऐसे अर्थों में भी प्रयुक्त होने लगा है जो शायद उपहासास्पद या अशोभनीय भी लगें। तथापि सच्चे पंडित आज भी हैं, सदैव रहे हैं और होते रहेंगे । समादरणीय सिद्धान्ताचार्य पंडित कैलाशचन्द्र शास्त्री ऐसे ही यथार्थ पंडित है। वर्तमान जैन शास्त्री पंडितोंमें वह शीर्षस्थानीय हैं। वह अदभुत पाण्डित्यके धनी, जैन साहित्यके गम्भीर अध्येता और परम सिद्धान्त मर्मज्ञ ही नहीं हैं, वरन् पुरातन शास्त्रकारोंके हार्दको खोलकर सरल सुगम भाषा एवं शैलीमें उसे प्रस्तुत करने में भी अत्यन्त प्रवीण हैं। एक कुशल अध्यापक होनेके साथ ही साथ वह एक प्रगतिशील सजग पत्रकार भी हैं, और एक आकर्षक वक्ता एवं प्रवचनकार होनेके साथ-साथ विपुल एवं विविध साहित्यके प्रणता भी हैं। सिद्धान्तज्ञ या दार्शनिक विद्वान बहधा ऐतिहासिक दष्टि-शून्य होते हैं, किन्तु हमारे पंडितजी इस नियमके अपवाद हैं। उनके लेखनमें भी और भाषणोंमें भी एक सुलझी हई समीक्षात्मकता, तुलनात अध्ययन तथा स्वतन्त्र चिन्तन भी यत्र-तत्र प्रभुत दृष्टिगोचर होते हैं। उनका अध्ययन जैन शास्त्रों तक ही सीमित नहीं रहा, वरन जैनेतर दार्शनिक, धार्मिक एवं लौकिक साहित्य और समसामयिक विचारधाराओंसे भी उन्होंने स्वयंको अवगत रक्खा । इसीसे उनके विचारोंमें प्राचीनता और आधुनिकता, पुराने और नये, का स्वस्थ सामंजस्य बहुधा प्राप्त होता है। पक्षका आग्रह उन्हें अभिभूत नहीं करता, सत्यका आग्रह ही उन्हें इष्ट रहा है। इसीलिए वह भिन्न या विरोधी विचारों अथवा सम्प्रदाय आदिकोंमें जहाँ-कहीं कुछ उपादेय देखते हैं तो उसकी सराहना करने में संकोच नहीं करते, और स्वयं अपनी परम्परामें जहाँ कोई असिद्ध, तर्कहीन या अनुपादेय बात देखते हैं तो उसकी आलोचना करने या उसे अमान्य करने में भी नहीं चूकते। वह गुणग्राही हैं।
इसके अतिरिक्त, शोध-खोजके क्षेत्रमें जिस अनाग्रह दृष्टिकी अपेक्षा रहती है, वह उनमें भरपूर है । वीरसेनीय धवलाटीकाके रचनाकालको लेकर स्व. प्रो० हीरालालजीके साथ विचार-विरोधकी कहानी चौंतीस-पैंतीस वर्ष पुरानी हो गई। आदरणीय प्रोफेसर सा० से मतविरोध करना उस समय हमारा एक दुस्साहस ही शायद समझा गया था। उनके नाम, वैदुष्य और प्रामाणिकताकी धाकके कारण हमारा किसीने समर्थन नहीं किया, यहाँ तक कि स्व. मुख्तार सा० ने भी नहीं, जिन्हें हमारी बात जॅच गयी थी। किन्तु
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