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जिगदत्त चरित
(स्तुति - खण्ड)
(वस्तुबंध)
रणविवि जिएवर प्रासि जे विस । रिसहाई धम्मुद्धरण, वियि त जि गय कालि होसहि । सइ सहि खित्ति पुणु, ताहं विवि कमसोहहि ॥ रगाहिलरेसरु सुउ रिसह, वरिसिर घम्म पवाहु ।
सो जय कारण रसह कद, माइ-प्रणाहु अगणाहु ॥
अर्थ :-धर्म का उद्धार करने वाले जो ऋषभादि वर्तमान तीर्षकर हैं. उन्हें नमस्कार करके तथा जो तीर्थकर हो गये हैं और जो भविष्य में होंगे. उन्हें नमम्कार करके तथा उनके साथ (मंघ) में पृथ्वी सल पर जो कर्मों का शोषण करने वाले सिद्ध हुए, उन्हें नमस्कार करके नाभि नरेश के सुन जिन ऋषभदेव ने धर्म-प्रवाह की वर्षा को रल्ह कवि ऐमे जय के कारण स्वरूप जगत् के नाथ आदिनाथ (को नमस्कार करता है)।
प्रासि – अम् - होना। वित्त : (वि० प्रसिद्ध, विख्यात) अथवा वृत : वित उत्पन्न. संजान, अतीत्त । रिसह -- ऋषभ। सोहाँह-सोह - शोषय । सृज - सृत । कइ – कवि । माइ-प्ररणाहू - प्रादिनाथ ।