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सागर पार करना
रमर करते हुये प्राण निकल जाएं तो जीव को पंचमगति का स्थान (मोक्ष) प्राप्त हो जावे ॥ २५२ ॥
{ २५३-२५४ ]
सत्तबर
पंच मुखाइ, फै सुरु स की मोखहि जाइ । सही कथा यह पूरी भई, सागर मश्झि कहर संभई | विषम समुद्द न जाई तरण, जिपवत्त सुमरइ जिरण के चरण । जहां जुरहण चरिंग हू कियज, सिरिया धम्म साथि पाइप ||
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अर्थ :--- सात अक्षर ( णमो अरिहंताणं) एवं पचपन (पंख परिमेष्ठि) काममा होने पर वह देव होता है प्रथवा मोक्ष जाता है । यह समस्त कथा यहाँ पूरी होती है तथा श्रागे की क्या सागर के मध्य उत्पन्न होती है ।। २५३ ।।
समुद्र विषम था जिसे मेरा नहीं जा सकता था। जिवन ने जिनेन्द्र भगवान के चरणों का स्मरण लिया। ( फलतः ) जहाँ मी वरि केन्द्र ( जिरदल ) में रहना किया (हरा) श्रीमती के धर्म को अपने साथ ( रक्षा करते हुये ) पाया || २५४।।
1 २५५--२५६ j
पापी छाडि गुपत सो भई, मिलि संघात चंपापुर गई । सा पुगि गइ निणिव विहारि पाय लागि निगवस संभालि || for की ना विनमति सुनिउ को जिलदत्त सखी हर्ड भरद्द | सिरिमति कहर मुहइ चाहि, तहि कौ घरि वसंतपुरि श्राह ॥
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अर्थ :- उस पार्थी को छोडकर श्रीमती गुप्त होगई तथा एक संघात (समूह) में मिलकर चंपापुर चली गयी। फिर श्रीमती जिन