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जिबन्त चरित
श्रथं :- "जो सेट धर्म का निलय है वह जीवदेव, जो कुल का तिलक है यही है । राजा ने कहा, "मेरे जीते होने से क्या हुआ यदि मेरे मां बाप पैरों ( पैदल ) प्रारहे हैं ? " ४८६॥
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मार्ग में उसने नेत्र तथा पटोली ( दो प्रकार के रेशमी वस्त्र ) फैलाये, क्योंकि वहां से तथा उसकी स्त्री आ रही थी । रत्नों से जड़े हुए दो सिंहासन भी उससे होट (तथा ऐन) लिए ला एक्स्प्रे ।। ४६० ।।
[ ४६१-४६२ 1
जाइ पहूते राइ प्रथाण, बोलत बोल न ता जिनवत्तह पुछण लए, काहे सेठि मउण इह परदेश निरंजन जाणु, घरसन सतु हुई लय अवसाणु ॥ वध सुख व तुम्ह मांगिधउ व जाणि मउणवउ लियउ ।
अर्थ : वे राजा के श्रास्थान ( सभा मंडप ) पर पहुंचे किन्तु मर्यादा ही मर्यादा में रहने के कारण ) ने कुछ नहीं बोले । इससे जिनदत्त पूछने लगा "हे सेठ! तुमने मौन क्यों ले रखा है" ? ।।४६१ ।।
सेठने कहा इसे निर्जन प्रदेश जानो और सनसन ( सन्नाटा) होने का कारण मैंने अवसान ले लिया है। एक सुप्त का दुःख है और ( दूसरे ) तुमने हमें मांग भेजा है, अतः उपसर्ग समझ कर हमने मौन अस ले लिया है ॥४६॥
श्रथारण / प्रस्थान
कांणहि काण 1
लग रहे ॥
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आस्थान मंडप, अधाई |
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[ ४६३-४९४
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भाइ राजमति सेठि बराह, तुम्ह पीछे हमु क ण श्राहि । जहि कइ हियह पंच परमेठि से तुम्ह आहि जीवदी सेठि ।।